एक आदर्श भारतीय परिवार की कल्पना करते समय हम अकसर ऐसी घरेलू परिस्थितियों को प्राथमिकता देते हैं जिनमें महिलाएं परिवार के लोगों की देख-रेख और उनकी घरेलू जरूरतों की पूर्ति करती हैं और पुरुष गृहस्थी को सुचारू रूप से चलाने के लिए बाहर जाकर काम करते हैं. लेकिन बदलते समय के साथ-साथ और दिनोंदिन बढ़ती महंगाई ने इस आदर्श कल्पना को निराधार साबित कर दिया है.
वर्तमान परिदृश्य में महिलाएं भी गृहस्थी के बाहर कदम निकाल रही हैं. यहां तक कि विवाह और मातृत्व ग्रहण करने के बाद भी वह अपने कॅरियर को अनदेखा नहीं करतीं. कभी अपनी अपेक्षाओं को पूरा करने के लिए तो कभी घर को आर्थिक सहायता और बच्चों को अच्छी शिक्षा प्रदान करने के उद्देश्य से उन्हें काम करना ही पड़ता है. क्योंकि बढ़ती महंगाई के कारण मात्र पुरुष की आय घर खर्च उठाने के लिए पर्याप्त नहीं रहती, इसीलिए महिला और पुरुष दोनों को ही परिवार के उज्जवल भविष्य के लिए काम करना पड़ता है.
ऐसी परिस्थितियों ने ना सिर्फ महिलाओं के कार्यक्षेत्र को विस्तृत किया है बल्कि पुरुष मानसिकता को भी परिवर्तित कर दिया है. पहले परंपरा अनुसार महिलाएं घर का काम और पुरुष बाहर का काम करते थे. इतना ही नहीं पुरुष तो घर के कामों में अपनी पत्नी का हाथ बंटाना तक अपनी शान के खिलाफ समझते थे, वहीं आज वह अपनी मर्जी से पत्नी को घरेलू कामों के साथ-साथ बच्चों की परवरिश में भी सहायता देने लगे हैं. बाहरी दायित्वों की पूर्ति करते हुए वह अब पारिवारिक मसलों में भी अपनी भागीदारी निभाते हैं.
इस नई मानसिकता के अनुसार हम यह देख सकते हैं कि जिन महिलाओं को सुबह जल्दी दफ्तर जाना होता है, उनके पति बच्चों को स्कूल भेजने और तैयार करने का काम करते हैं. वहीं दोपहर को घर आ जाने के कारण महिलाएं बच्चों को स्कूल से लेकर आने और पढ़ाई में उनकी मदद करती हैं. इतना ही नहीं महिलाएं अपने बच्चों की जरूरतों का भी पूरा ध्यान रखती हैं. वह उनके लिए किताबें जैसे जरूरी सामान लेकर आने के साथ बच्चों को घूमाने-फिराने भी ले जाती हैं. कई ऐसे पुरुष भी हैं जिनकी पत्नी अगर ऑफिस से देर से लौटती है तो वह खाने का प्रबंध भी खुद ही कर लेते हैं. इससे माता-पिता दोनों ही बच्चों के और निकट तो आते ही हैं. साथ ही घर की जरूरतें भी आसानी से पूरी हो जाती हैं. महिला-पुरुष का यह स्वभाव उन पर किसी प्रकार का दबाव भी नहीं पड़ने देता. वह मानसिक और पारिवारिक दोनों ही पक्षों से और अधिक संतुष्ट रहने लगते हैं. अधिकांश समय घर से बाहर व्यतीत करने के कारण पिता अपने बच्चों से अपेक्षाकृत कम नजदीकी बना पाते थे, लेकिन अब जब वह बच्चों के कामों में हाथ बंटाने लगे हैं तो नि:संदेह यह पिता और बच्चों के संबंधों को और अधिक मधुर बनाएगा.
माता-पिता दोनों का ही कामकाजी होना जहां उनकी पारिवारिक जरूरतों को पूरा करता है वहीं बच्चों को भी अपेक्षाकृत अधिक और जल्दी स्वावलंबी बना देता है. घर में माता-पिता दोनों के ना होने से बच्चा अपने आप खाना खाता है और जरूरी काम निपटाता है. उसमें आत्म-निर्भरता की भावना को भी बल मिलता है. अगर कभी उसे घर से दूर रहना पड़े तो उसे बहुत मामूली परेशानियों से दो-चार होना पड़ता है. लेकिन जिन बच्चों के अभिभावक उनके साथ रहते हैं, वह काफी लंबे समय तक उन पर निर्भर रहते हैं, उनमें स्वावलंबन की प्रक्रिया बहुत देर में शुरू होती है.
जब माता-पिता बच्चों को अच्छी शिक्षा और उज्जवल भविष्य देने के लिए कार्य करते हैं, तो बच्चों को भी चाहिए कि वह अपने माता-पिता की भावनाओं का सम्मान करें. उनके प्रति अपने दायित्वों का निर्वाह पूरे समर्पण भाव के साथ करें. इससे ना सिर्फ आपसी संबंधों में मजबूती आएगी, बल्कि पारिवरिक जीवन भी खुशहाल और सहज बन पड़ेगा.
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