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ठीक होने का शॉर्टकट दुआ नहीं भरोसा है !!

इसे दवा की नहीं दुआ की जरूरत है, हिंदी फिल्मों का यह एक बेहद लोकप्रिय और शायद सबसे पुराने डायलॉग में से एक है. जब भी कोई व्यक्ति बहुत बीमार होता है तो डॉक्टर उसके परिवार वालों को यही कहता है कि अब दवाओं ने अपना असर बंद कर दिया है इसीलिए अब परिवारवालों की दुआएं ही उसकी जान बचा सकती हैं. लेकिन अगर हम एक नई रिसर्च पर गौर करें तो यह सिर्फ एक फिल्मी डायलॉग से अधिक और कुछ प्रतीत नहीं होता.


medicinesवैज्ञानिकों का कहना है कोई भी व्यक्ति केवल तभी ठीक हो सकता है जब वह डॉक्टरों द्वारा दी जाने वाली दवाइयों पर भरोसा रखता है. अमेरिका में रहने वाले सात सौ बीमार व्यक्तियों पर संपन्न इस शोध के बाद यह प्रमाणित हुआ है कि दवाइयों पर भरोसा करने वाले मरीज अपेक्षाकृत जल्दी ठीक हो जाते हैं.


इस अध्ययन के बाद एक बहुत रोचक बात सामने आई है वो यह कि सर्दी और जुकाम जैसी बीमारियां कभी दवाई खाने से ठीक नहीं होतीं. एनेस्ल ऑफ फैमिली हिस्ट्री नामक पत्रिका में प्रकाशित इन नतीजों के बारे में वैज्ञानिकों का कहना है कि बिना दवा खाए या फिर कोई बेअसर दवा खाने के बाद भी अगर आपको आराम मिलता है तो मेडिकल भाषा में उसे प्लोसेबो इफेक्ट कहा जाता है. इसके अंतर्गत बीमार व्यक्ति को यह लगता है कि वह दवाई खाने से ठीक हो रहा है जबकि वास्तव में वह दवाई उस पर कोई असर नहीं दिखा रही होती, बल्कि वह अन्य कारणों से स्वस्थ हो रहा होता है.


लगभग सभी समाजों में परंपरागत तौर पर इस असर को स्वीकार किया गया है. भारतीय समाज के अलावा अन्य देशों में भी इस तथ्य पर विश्वास किया जाता है कि दवाई ना लेने के बावजूद मरीज सर्दी जैसी बीमारी से ठीक हो सकता है लेकिन इस अध्ययन के बाद अब इस धारणा को आधार प्रदान कर दिया गया है. जिन लोगों पर यह अध्ययन किया गया उनमें से कुछ को कोई दवा ही नहीं दी गई और कुछ को ऐसी दवाएं दी गईं जो सीधे तौर पर सर्दी जुखाम को ठीक नहीं करतीं.


मरीजों को यह यकीन था कि वह अच्छी औषधि युक्त दवाई का सेवन कर रहे हैं. कुछ समय बाद ही वह एक दम स्वस्थ हो गए और इसका कारण बना उन्हें दिया गया यह आश्वासन कि वह प्रभावी दवाई खा रहे हैं. इसके विपरीत जिन लोगों को कोई दवाई नहीं दी जा रही थी उन्हें ठीक होने में थोड़ा अधिक समय लगा. अध्ययन के दौरान वैज्ञानिकों को यह यकीन हो गया था कि मरीज को दुआ या डॉक्टर नहीं बल्कि उस दवाई पर भरोसा ही ठीक करता है. हां, लेकिन गंभीर बीमारियों के मामले में यह अध्ययन शायद कारगर सिद्ध ना हो इसीलिए डॉक़्टरी सलाह को नजरअंदाज नहीं किया जाना चाहिए.


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