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पर्यावरण की प्राकृतिकता को रौंदती कृतिमता की बुलेट ट्रेन,,,

meriabhivyaktiya
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प्राकृतिकता ईश्वर की देन है,और कृत्रिमता मानव की।
वह ईश्वर प्रदत्त हर स्वाभाविक वस्तु को अपनी सुविधानुसार काट-छांट कर एक नया रूप दे देता है।
पैरों के नींचे नरम दूब का मखमली एहसास,,,किसको नही प्रिय!!!! तो दीजिए इंसानी सोच को दाद,,ऐसी ,हवाई चप्पलें बना दीं जिस की सतह पर कृत्रिम हरी घास उगा दी।
पहाड़ों पर छुट्टियां बिताना,,,प्रकृति के स्नेहिल अंचल में मन का सुकून खोजना,,हम सभी को प्रिय!! पर पहाड़ों की तलहटियों तक पैदल चल के जाना,,,तौबा!!!! फिर किया कमाल इंसानी सोच ने,,और काट कर पहाड़, वहाँ पहुँचने की राह बना डाली,,,। अब तो डर हैं कहीं सारे पहाड़ सपाट मैदान ही ना बन जाएं,,,और मनुष्य अपनी बुद्धि बल पर कृत्रिम पहाड़ बनाने की युक्ति भी ना खोज निकाले,,,,वैसे दिल्ली के ‘ओखला डंपिंग ग्राउंड’ अब पहाड़ी इलाके जैसा ही आकार पा रहा है,,,,।
गरमियां आ रहीं,,, पहले बच्चे ननिहाल/ददिहाल जाते थे माँ के साथ,,वहाँ ताल-तलैया,नदी देखने को मिलती थी। अब तो नानियों/दादियों के ननिहाल/ददिहाल भी आधुनिक,,,, वहाँ अब ‘वाॅटर पार्क’ दिखते हैं,,,,(अब अपनी ही कहूँ तो,,भावी भविष्य की आधुनिका दादी बनने की कतार में कतारबद्ध हूँ)
कहने का तात्पर्य ये कि,,, धीरे-धीरे कृत्रिमता प्राकृतिकता पर हावी होती जा रही। यह कृत्रिमता मात्र हमारे प्राकृतिक परिवेश में ही नही अपितु मानवीय आचरण पर भी अपना वर्चस्व स्थापित करती जा रही है।
कार्य-कारण पर प्रकाश नही डालना चाहती क्योंकि,,जब हम इतने अधिक बुद्धिमान हो चुके हैं एंव लगातार और अधिक बुद्धिमान होने के लिए विकासशील हैं,,,,,उस एवज में ‘कार्य और कारण’ क्या हैं,,,,इससे भी भली-भांति अवगत हैं। अतः इसपर व्यर्थ चर्चा ना कर अपनी अनुभुतियों को लिखना श्रेयस्कर।
अरावली की पहाड़ियों को काटकर चौड़ी सड़के बन गई हैं और बन भी रही हैं,,,,उन्ही सड़कों पर अपनी कार से कई बार गुजरी हूँ,,। एक तरफ अनछुआ अनगढ़ अरावली का बीहड़ है,,,,जहाँ टेसू के तथा अन्य जंगली पादप-वनस्पतियों के खुशनुमा से बेतरबीब जंगल हैं,,,,, तो दूजी तरफ मानव निर्मित बड़ी खूबसूरती से तराशे हुए उपवन।
इन उपवनों की सैर करने पर मन सदा विस्मृत ,,आंखें अचम्भित,दिमाग उलझा हुआ रहता है। इस का कारण अवश्य बताना चाहूँगीं,,,,!!! बरगद का विशालकाय वृक्ष एक रोटी खाने वाली परात में उगा हुआ ,,,, केले का पेड़,,, गोल तने के बजाए फव्वारे दार निकलते पत्तों को लिए,,,,नाना प्रकार की झाड़ियां कहीं हाथीं के आकार की छंटी हुई तो कहीं जिराफ के आकार में ढली,,,। उस पर हरियाली देखनेऔर स्वच्छ वायु खींचने के लिए उमड़ता लोगों का विशाल झुंड,,,,!!!
अब यहाँ के कृत्रिम परिवेश में आकर,,मन विस्मृत,,आंखे अचम्भित,,और दिमाग़ उलझा हुआ ही रहेगा ना,,?
इसके विपरीत अरावली की अनछुई प्राकृतिकता की ओर देखने मात्र से मन शान्त,,नयन मुदित और दिमाग सुलझ सा जाता है। परन्तु आशंकित हूँ,,, कृत्रिमता की बेलगाम होती प्रवृत्ति से। कहीं ऐसा ना हो,,, कि मानव सोच इन प्राकृतिक पहाड़ियों के,बीहड़ों के ‘बॅनशाई’ बना दें और इनका नाम रख दें,,,,’द अरावली हिल्स’ ,,,,,! लोगों का हुजूम यहाँ छुट्टियां बिताने पहुँचे,,,, शांति और सुकून की तलाश में परन्तु विस्मृत,अचम्भित और आन्दोलित मन लिए वापस लौट आए।
अरावली की पहाड़ियों को एक उदाहरण के तौर पर लेकर मैने अपने भाव व्यक्त किए।,,,
तूफानी गति से अपने मद में मदमाती कृत्रिमता की बुलेट-ट्रेन पृथ्वी की कइयों अनछुई अनगढ़ प्राकृतिकता को रौंदती आ रही। मन आशंकित है,,, कहीं निकट भविष्य में “प्राकृतिकता” शब्द को परिभाषित करने के लिए हमारे पास उदाहरण भी बचेंगें या नही,,,,,,???????????
प्रस्तुतकर्ता
लिली मित्रा

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