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दुर्गापूजा,,,, एक आनंदोत्सव

meriabhivyaktiya
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दशमी के दिन माँ कि प्रतिमा देखती हूँ तो आंखे भर आती हैं,,,दुर्गा जी के नयन भी छलछलाते से प्रतीत होते हैं। कैसे पांच दिन पहले उनके आगमन के उल्लास से पूरा वातावरण जैसे नाच रहा था,,,और आज जाने का दिन आ गया। यह भाव देवी प्रतिमा के मुखमंडल पर भी झलकता सा प्रतीत होता है।
पता ही नही चलता पूजा के ये दिन कैसे बीत जाते हैं।
‘महालया’ की प्रभात माँ की अलौकिक आगमनी प्रकाश से प्रकाशमान हो जाती है। कानों में ढाक और घंटे का नाद,,और नसिका में लोहबान की महक सुवासित हो जाती है। दिनों की गिनती शुरू हो जाती है।
पूजा पूजा सारा वातावरण,,,मन का नर्तन आंनद से । अश्विन मास का नीला आकाश,,कास के लहलहाते फूल,,और बयार में हरश्रृंगार की महक,,शरद ऋतु की दस्तक का बिगुल बजाती हुई। मौसम संग उत्सवी उमंग,,,,हर मन उल्लासित।
नव वस्त्र, नव साज, पूजा, पुष्पांजली,भोग,प्रसाद, खेल-विनोद, नाच-गान, नाटिकाएं, रवीन्द्र संगीत,, घूमना-टहलना ,,,टोलियों में बैठ ठहाके लगाना,,खान-पान,,और बेफ्रिक्री दुर्गा पूजा का दूसरा नाम,,।
संध्या की आरतियां धुनिची नाच, ढाक की ताल पर ताल मिलाना,,और भाव भंगिमाओं की जुगलबंदियां ,,आहाआआआ उस पल तो लगता है जीवन कितना संगीतमय,,,!!! लोहबान की खुशबूँ दिनो बाद भी कपड़ों से जाती नही,,,।
पंडाल के किसी कोने में चुपचाप बैठ माँ दुर्गा की प्रतिमा को निहारने का भी एक अपना ही आनंद होता है। ऐसा लगता है जैसे हमारे साथ माँ दुर्गा भी अपनी सारी चिन्ताएं और दायित्वों का भार कुछ दिनों के लिए भूल हमारे साथ उत्सवमयी हो रही हैं।
पंचमी के बोधन(प्रतिमा के मुख से आवरण हटाना) और प्राण प्रतिष्ठा ,आनंद मेला, महाषष्ठी के दिन अपने संतान के मंगल हेतु माताओं का उपवास, महासप्तमी की पूजा, महाअष्टमी की पुष्पांजली, अष्टमी नवमी की मिलन बेला की ‘संधि पूजा’ 108 दीपदान, 108 कमलपुष्पों की माला बना माँ को पहनाना, नवमी की कुमारी पूजा(बेलूर मठ) और हवन,,,और अंत में दशमी के दिन पूजा के बाद दर्पण विसर्जन के बाद माँ की प्रतिमा को ‘सिन्दूर दान’ और ‘देवी बरण’ के लिए रखा जाता है।
सभी विवाहिताएं ,पान मिष्ठान्न खिला माँ को सिन्दूर लगा कर अपने सुहाग और सौभाग्य की कामना का आशीष मांगती हैं।
उसके बाद होता है ‘सिन्दूर-खेला’ सिन्दूर एक दूसरे को लगा कर मुँह मीठा किया जाता है।
ऐसा माना जाता है कि माँ दुर्गा इस समय अपने मायके आती हैं,,और दशमी के दिन माँ का इसप्रकार वरण कर ससुराल भेजा जाता है इस कामना के साथ कि अगले साल माँ इसी उल्लास और सौभाग्य लिए फिर आएगीं ।
फिर क्या नाचते गाते,,’दुर्गा माई की जय’ ‘ आशते बोछोर आबार होबे’ के जयकारे लगाते हुए माँ की प्रतिमा को नदी घाट पर लेजाकर जल में विसर्जित कर दिया जाता है। एक घट में विर्सजित स्थान का जल एक घट में भर लिया जाता है, जिसे ‘शांति जल’ कहते हैं। समूचा दल जब विसर्जनोपरान्त वापस पंडाल में आता है,,तब यह ‘शांति जल’ पुरोहित सभी के सिर पर छिड़क सुख और शांति की कामना मंत्रोच्चारण सह देवी से करते हैं।
इसके उपरांत सभी गुरूजनों के पैर छूकर छोटे उनसे आशीष प्राप्त करते हैं। एक अन्य को विजयादशमी की शुभ कामनाएं देते हैं। खान-पान मेल-मिलाप का यह अवसर ‘बिजोया मिलन’ कहलाता है। इसी के साथ सब एक नए जोश लिए,,उत्सव की मीठी-मीठी यादों को मन-मस्तिष्क में भर अपनी दैनिक दिनचर्या में लौट जाते हैं इस कामना के साथ,,,,,, #आशतेबोछोर आबार होबे’,,,

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