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‘परिवर्तन’ (लघुकथा)

meriabhivyaktiya
meriabhivyaktiya
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कभी कभी कैसे बुलबुले उठते हैं मन मे,,कुछ बड़े तो कुछ छोटे,,,जैसे मन मे कुछ खौल रहा हो,,तमाम तरह के वैचारिक बुलबुल उभरते और फटते हुए। कहीं पढ़ रही थी कि मनुष्य चाहे जितना भी व्यस्त क्यों ना हो एक निश्चित समय उसे खुद के साथ बिताना चाहिए,,, अच्छा लगता है खुद मे डूबना। अपनी ही कही और की गई क्रियाओं का अवलोकन करना। अपनी अदालत मे जज भी मै और अभियुक्त भी मै,और वकील भी मै,,।
अक्सर खो जाया करती थी नीलिमा ऐसी अदालतों की न्यायिक कार्यवाहियों में। बहुत अंदर तक गोता मारना पड़ता था,क्योंकी न्यायालय के सभी किरदार उसे ही निभाने पड़ते थे, निष्पक्ष न्याय की अपेक्षा सभी किरदारों को होती थी।
रोज़ एक नया मुक्दमा । आज का केस था ,, आकाश का कल रात नियमानुसार बात करके ना सोना। अक्सर दोनो मोबाइल पर सोने से पहले कुछ बातें करते और फिर ‘गुडनाइट’ कह कर सोने की तैयारी।
हलांकि दोनो की प्रेम कहानी के शुरूवाती दौर मे ये बाते अंतहीन और समय सीमा से परे होती थीं। चूँकि अब एक लम्बा अरसा तय कर चुका है इन दोनों का प्रेम, अब वह उन्मादीपन नही है।एक दूजे के लिए तड़प अभी भी उतनी ही है, परन्तु एक दूजे की परिस्थियों और जीवन की प्राथमिकताओं की समझ अब परिपक्व होने लगी है। हालात् मजबूर भी बना देते हैं और इंसान को धीरे धीरे परिपक्व भी। नीलिमा के मन मे जिरह चालू है। आइए अब आज के मुक्दमे की पैरवी शुरू करते हैं।
इतवार था कल ,झमझमाती बारिश थी,, मतलब ये कि मौका भी और मौसम भी। आकाश और नीलिमा ने एक लम्बे अरसे बाद इस इतवारी सुबह को भरपूर जिया।
दोनो अलग अलग शहरों मे रहते हैं। दोनो के बीच सम्पर्क का एक मात्र साधन ‘मोबाइल’। क्या अद्भुत आविष्कार है मानव मस्तिष्क का!! कभी दूरियों का पाट देता है,तो कभी दूरियां बना देता है यह अद्भुत यंत्र।
खैर दोनो की सारी दुनिया इन्ही दो लम्हों की बातों पर चलती थी।ईश्वर की कृपा दृष्टि ही थी जो कल मौके मिलते गए और आत्मिक संतुष्टिदायक बातें दोनों के बीच होती रही सुबह के अलावा भी।
पर आदत तो आदत है,,असमय जितना भी मिल जाए,,परन्तु अपने निर्धारित समय पर खुराक़ ना मिले तो तड़प और बेचैनी उत्पन्न होने लगती है। और मामला प्रेम का हो,,,,फिर तो कुछ कहने ही नही।।
आदतन रात साढ़े नौ बजे तक नीलिमा ने आकाश को मैसेज भेज दिया- “जानेमन डिनर हो गया?”
और हर दो तीन मिनट के बाद उत्तर की जाँच करती रही।
फिर खुद डिनर की तैयारी मे जुट गई। तब तक आकाश का कोई जवाब नही आया था।
एक घंटे बाद नीलिमा ने यह सोचते हुए या यूँ कहिए खुद को समझाते हुए फिर मैसेज भेजा – सो गए क्या?
‘गुडनाइट’,,! और अपनी अदालत खोलकर बैठ गई जिरह,सबूत,बयांन ,,,,आज सुबह अच्छी बात हुई,,शाम को भी तो कितनी सुखद और सन्तुष्टिदायक वार्तालाप हुआ,,, चलो कोई नही जो अभी हमारी ‘निर्धारित शुभरात्रि’ चैट नही हुई।
इतना सब समझने समझाने के बावजूद भी मन नही मान रहा था,,,बार बार आकाश के रिप्लाई की अपेक्षा मे फोन पर हाथ चला ही जाता था। आकाश का मैसेज आया,,देखते ही चेहरा खिल उठा कि दो बातें कर के सो जाएगी वह ,सुबह उठना था जल्दी।
जवाब था,,
“ओ सजनी
सताए रजनी
रवि भर मदमस्त
आ जा कामिनी”

हाँ डिनर हो गया प्रिये।
“मेरा प्यार”
“गुडनाइट”।
पुरूष कितने सरल और संतोषी होते हैं,,,कभी प्रेम कर के देखिए यह तथ्य स्पष्ट हो जाएगा ।
जवाब देखते ही नीलिमा ने एक सांस मे कई मैसेज भेज डाले

” थे कहाँ?
बिना बतियाए जा रहे हैं सोने।
बता कर जाइए कहाँ थे?
सुनिए,,
सुनिए,,
देखिएगा मत,,
दिल दुखा कर गए,,,।”

परन्तु कोई जवाब पलट कर नही आया,,फोन भी किया पर व्यर्थ क्योंकि महाशय 10 मिनट के अंदर ही निद्रादेवी की आगोश मे जा चुके थे।
नीलिमा रात एक बजे तक इधर-उधर करती रही फिर ना जाने कब उसकी भी आंख लग गई।

“ओह, सो गया था। तुम गुडनाइट कर दी थी इसलिए”
आकाश के गुडमार्निंग के साथ यह जवाब आया रात के मैसेजों का,,,।
बस फिर क्या था,,,एक तरफ नारी मन का गहन मंथन और उससे उपजे तरह-तरह के गम्भीर निर्णय,,और दूजी तरफ सहज-सरल और संतोषी पुरूष मन,,तीक्ष्ण हृदयभेदी प्रहारों को झेलता हुआ।
एक छोटी सी गलती कैसे जीवन दर्शन तक का चिन्तन करवा देती है यह विचारणीय एंव दर्शनीय है,,, और यदि आपने प्रेम किया है तब तो ऐसे ‘दार्शनिक तर्क-वितर्क” आए दिन झेलने पड़ सकते हैं।

नीलिमा ने खुद का आत्ममंथन इतनी देर मे कर लिया था। उसके मन की अदालती जिरह बाज़ी ने यह परिणाम निकाले थे-“कभी कभार बिना टाइम बात लम्बी कर लूँ तो मन मान ले की होगया कोटा पूरा अब अपना काम कर नीलिमा”

बिचारे आकाश ने अपने बचाव मे भोली सी दलील रखी-” “देखी न एक दिन तुम्हारे goodnight के कारण गफलत हो गयी तो कैसे पटखनी दे रही हो मुझे।”
पर कहाँ नीलिमा की अदालत अंतिम निर्णय ले चुकी थी,,, “अब से गुडनाइट और गुडमार्निंग बंद,, कोई बंधन नही
सब उन्मुक्त आत्मा की तरह”।

आकाश की कोमल गुहार- “उफ़्फ़,,,!! इतनी नाराज़गी
मेरी तो सोचो कुछ क्या बीतेगी,,?
उन्मुक्त तुम्हारे बिना ?
बावली”

नीलिमा- “नाराज़ नही हूँ,, उतार रही हूँ सब”।
आकाश- “दोनों आत्मा एक।
अलग की बात कितनी निरर्थक
समझो हम हैं”।

नीलिमा-“वही तो समझ रही हूँ,,अब कहाँ पहले जैसे करती हूँ
फोन नही आता था तब कितना आफत करती थी,,।”
आकाश-“संयुक्त भी नहीं,एक ही आत्मा दो शरीर में स्पंदनों को संचालित कर रही हैं। हमारे बीच तेरा-मेरा की कोई संभावना नहीं।”

नीलिमा- “बस यही फिलोसफी उतार रही हूँ
पर आपकी स्थिति तक आने मे थोड़ा और समय लगेगा”।

आकाश-“यह बताओ हमारी बातें कब बंद रहती हैं? कौन सा पल है जिसमें हम एक दूजे से पल भर को अलग हों। बता दो ज़रा?”
नीलिमा-” कभी नही,,होता”
हमेशा ख्यालों मे रहते हैं,हवा के भांति।”
आकाश-“तो यह फोन कहां से आ गया??
सही बोली। हवा की तरह”
नीलिमा-“वही तो बोल रही हूँ, फिर फोन आए ना आए कोई फरक ही नही पड़ेगा, पर उस स्थिति तक आने मे मुझे समय लगेगा,,,। उसी की तैयारी चल रही।”

आकाश-“पर फिर भी फोन जरूरी है। आवाज से स्पंदनों से छूटे भाव सुनने को मिलते हैं।”

नीलिमा- “एक बार आपका फोन खराब हुआ था ,,आपसे दो दिन कोई बात नही हो पाई थी,,कैसी हालत हो गई थी,,पर अब वैसा नहीं करना”।(एक पुरानी घटना का संदर्भ देते हुए)

आकाश-“फोन को नकारा नहीं जा सकती है। सम्पूर्ण सम्प्रेषण हो सके ऐसी कोई अभिव्यक्ति नहीं है। इसलिए अभिव्यक्ति के कई साधनों का उपयोग लाजिमी है।”

नीलिमा-( कटाक्ष मारते हुए)” यह अभिव्यक्ति भी एहसासों मे हो जाएगी।”

आकाश- “एक दिन फोन न आए तो शाम तक हालात बिगड़ जाएंगे। अब तो और बुरी हालत होगी। दो दिन तो प्राण ले लेगा।
अभी मैन कि फोन करूं?”
नीलिमा- ” नही अभी नही बात करनी” मुँह फुलाते हुए जवाब दी।
आकाश -” फिलॉसॉफी की ऐसी की तैसी”।

नीलिमा -“ना , ऐसी की तैसी क्यों,,,?यह अपनानी बहुत ज़रूरी है
वरना जीवन काटना भारी”।

आकाश- “आज फोटो की मांग नहीं की? (यह भी एक नियम था रोज़ तैयार होकर आकाश अपनी फोटो नीलिमा को भेजता था, और नीलिमा सारा दिन उस फोटो को जाने कितनी बार निहारती थी,,बातें करती थी, आकाश के चेहरे के भावों को पढती रहती थी)
दो शब्दों का खींजा सा जवाब नीलिमा का-“आपने भेजी नही”।
आकाश-“तो पूछ तो सकती थी कि क्यों न भेजी ?
कितनी दूर करती जा रही हो मुझे,,।
जैसे कोई अजनबी हूँ,,।
इत्तफाक से मिल गया था,,।”
उफ्फ एक छोटी सी चूक के घातक परिणाम झेलता आकाश,,,। एक तो उमस भरा मौसम ,पसीने से खस्ता हाल,,उस पर प्रेमिका के बिगड़े मिजाज़ की गर्म हवाएं,,, ऐसा दंड,,,,,! राम बचाएं ,,,!!

‘मियां की जूती मियां के सर’ को सिद्ध करता उत्तर दिया नीलिमा ने -“सोचा आप व्यस्त होंगें।”

मौसम और माशूका के वार को सहता हुए आकाश बोला- “देखो देखो दुनियावालों
मेरी प्रिये बदल रही”।

माशूका से जीतना इतना आसान नही,, दनदनाता हुआ उत्तर आया-“आपमे ढल रही हूँ।”

सीमा पर तैनात जवान के भांति हर वार को वीरता के साथ झेलता आकाश,,,,, बोला-“तर्क हर गलती को छुपा लेता है।
ढल रही,,
शानदार जवाब,वाह!!
ये मारी।”
दार्शनिकता के समन्दर मे डूबती नीलिमा का निर्णायक जवाब -” आप को दुविधा मे नही डालना कि,,जीवन की प्राथमिकताएं देखूँ या नीलिमा??
प्राथमिकता पर ध्यान दें आप।”

आकाश- “प्राथमिकताएं तो चल ही रही हैं, नीलिमा तो मेरी सांस है।
उसे देखना नहीं उसे तो जिये जा रहा हूँ।
प्राथमिकता तुम ”

नीलिमा के अंदर का वकील मुक्दमे पर अपनी पकड़ बनाता हुआ- “गलत ”
आकाश- “क्या गलत। दूर कर रही हो,?”
नीलिमा-“प्राथमिकताएं विवश करती हैं
मै आपको विवश नही करना चाहती।”

आकाश थोड़ी दृढ़ता के साथ – “विवशता कभी कभी आती है। रोज नहीं”।
नीलिमा -“एकदम भी नाराज़गी नही है।
बस यह सब बोल देती हूँ तो अपने आप को एक पायदान चढ़ा हुआ पाती हूँ।”
अपने आप को अब ना ढीगाऊँगीं
हे प्रियतम तुम रहो कर्मशील कर्तव्यपथ
पर ,मै बाधा बन ना मार्ग अवरोध लगाऊँगीं,, से भाव नीलिमा के मन मे उफान मारने लगे थे ।

आकाश- पूरी चेष्टा के साथ बात को सम्भालने मे लग गया,,, “छोड़ दो फिर कटी पतंग की तरह। यह विवश करना क्या है?
थोड़ी ज़िद न हो तो मोहब्बत बेरंग हो जाती है।
तुम्हारे प्यार के पंजे से लटका मैं आसमानों का विचरण कर रहा और तुम विवशता की बात कर रही।”

नीलिमा-“एकदिन आपको लगेगा की नीलिमा सब समझ जाएगी।”

आकाश-“क्या समझ जाएगी
बोलो??”

नीलिमा-“कभी किसी कारण बात ना हो पाई,,तो इस तरह की बातें कर के आपको परेशान नही करेगी।
वह यह समझ जाएगी अवश्य ही कोई कारण रहा होगा।
अभी भी समझ आता है
पर समझ कर भी ना समझ बन जाती हूँ।”

आकाश-“अपनी स्वाभाविकता को मत बदलो
जैसी हो वैसी ही रहो। बेहद प्यारी लगती हो।”

नीलिमा-“पर मुझे खुद को बुरा लगता है, सब समझते हुए भी ऐसे तर्क-वितर्क कर समय नष्ट करती हूँ।”

आकाश-” तो क्या हुआ। हर बात प्यारी और अच्छी हो यह भी तो संभव नहीं।
सहजता में ही मजा है।
कोई परिवर्तन नहीं।”

नीलिमा-“जो है वह जाएगा थोड़े ही,,,
मात्रा कम बेशी हो सकती है बस।”

बात का रूख बदलते हुए आकाश ने शरारत भरा प्रश्न पूछा-”
“हमारा बच्चा कब होगा,,,?”
नीलिमा – (मूड मे कोई परिवर्तन नही)
“हो गया,,”
आकाश चौंकते हुए- “कब,??????”

नीलिमा- “परिवर्तन नाम रखा है बच्चे का,,,।”
“चलती हूँ नाश्ता बनाना है।
शुभदिन”
आकाश के लिए जवाब की कोई गुन्जाइश ना रखते हुए नीलिमा ने मुक्दमे का फैसला सुना दिया।

आए दिन ऐसे मामले दोनों की अदालत मे आते रहते हैं। निर्णय लिए जाते हैं,,,और दूसरे ही पल,,पुनः एक दूसरे के प्रति उनकी अकुलाहट फिर बांवरी होने लगती है।

********समाप्त*******

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