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मन की कोठरी (लघुकथा)

meriabhivyaktiya
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एक पल की छोटी कहानी *

बारिश मद्धम् हो चुकी है। चाय का कप लिए नलिनी अपनी बैठक के बारामदे के स्लाइडिंग डोर को खोलकर जमीन पर बैठ गई है।
सुबह का यह वक्त बेहद नीजि पल होता है नलिनी का,,,।बच्चे स्कूल जा चुके होते हैं । पतिदेव सो रहे होते हैं। कोई आवाज़ नही ,कोई बाधा नही।नलिनी अक्सर इस समय मोबाइल मे पोस्ट देखती है,,या फिर अपने मन के भावों को अपने ब्लाॅग पर उतार देती है। आज कुछ करने मन नही कर रहा उसका। रात से लाइट नही आरही,, वाई फाई नही चल रहा और मोबाइल का डेटा खत्म होने की कगार पर है। इसलिए आज सब बंद कर के वह तेज़ बारिश मे भीगे पेड़ों को देख रही है।
कनेर के पेड़ों की शाखाएं जैसे बूँदों के बोझ से नीचे की तरफ झुक गई हैं। हल्की फुहार ,चिड़ियों की चहक, चाय की चुस्की और ठंड़ी हवा का झोंका नलिनी को अपनी आगोश मे लेता जा रहा है।
सबकुछ तो है उसके पास कोई कमी नही,, फिर भी मन का कोई एक कोना है जो बंद कोठरी सा है। जब वह कभी अपने साथ इस कदर खोई होती है,तो अक्सर इस कोठरी मे चली जाती है। बहुत सी अभिलाषाएं,इच्छाएं,कल्पनाएं यहाँ छुपाकर रखी हुई हैं नलिनी ने। एक-एक को उठाकर देखती है। मुस्कुराती है,उन पर बड़े अनकहे भावों के साथ हाथ फेर भावुक हो जाती है। फिर जल्दी से खुद को सम्भालते हुए दूसरी तरफ बढ़ जाती है।
भूत के अवशेष,वर्तमान की आशाएं, और भविष्य की कल्पनाएं सब टटोल डाली आज। एक दबी सी चाहत है जिसपर कल्पनाओं की जबरदस्त धूल है,,उसे नलिनी झाड़ना नही चाहती,,क्योंकी धूल के हटते ही एक साफ-सुथरा यथार्थ सामने खड़ा हो जाएगा। जिसको जानते हुए भी मन स्वीकार करने से आनाकानी करता है।
बस देखकर उसे वापस रख दिया उसकी जगह पर,,नलिनी की आत्मा बसती है इस चाहत में। कोठरी से निकलने से पहले वह अपनी आत्मा को आलिंगन करके झटके से बाहर आ जाती है।
किवाड़ बंद कर के वापस खुद को चाय के कप के साथ, बरामदें से बाहर देखता हुआ पाती है। अरे चाय कब खत्म हो गई !!!!! पता ही न चला। इतनी देर मे पतिदेव ने बेड- टी की गुहार लगा दी है।
जल्दी से खुद को समेट नलिनी किचन मे जाकर चाय बनाने लगी। मन की वो कोठरी अब रोज़मर्रा की चहल-पहल मे गुम हो गई।
क्या ऐसी ‘कोठरी’ केवल नलिनी के मन मे ही है? कभी बैठिए खुद के साथ चाय का कप लेकर,,और उतरिए अपने मन के आंगन में,,,,आपके अंदर भी शायद ऐसी कोई कोठरी हो,,,,,,,,,,,!!!

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