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विरह का हवन कुंड,,,,

meriabhivyaktiya
meriabhivyaktiya
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कोई विछोह से हो रहा तार तार,,,
तो कहीं मिलन की तड़प लिए

संजोता नित नए योजनाओं का संसार,,,

विरह के दोनो ही रूप से आकार लेता काव्य हार,,
प्रकृति मे खोजता उदाहरण
करता आत्मसात,,,
तो कभी कहता नियति की बिसात,,
नयन झरे निरन्तर ,
अश्रु उड़ जाएँ बन भाप,,,
श्रृवण संवेदना अति प्रबल,,
पुष्प विछोह दरख्त से
और सुनाई दे चीत्कार,,,,
सूर्य प्रचंड रहा धधक्,,
लगे जगत अन्धकार,,,,
साहित्य की विधा मे नही
बंध रहे हैं शब्द आज,,
गद्य नही ये पद्य नही
भाव बहे निर्बाध,,
उच्च शिखर से गिर रहा हो
प्रबल वेग से जल प्रपात,,
परिस्थिति जनित या
नियति का मायाजाल,,
विछोह की आहुति कुंड मे
भस्मा रही वेदना हो निहाल,,
कालकठोर करे मंत्रजाप
निरर्थक भूलने का प्रयास,,
विरह वेदना को बहजाने दो
प्रीत सिन्धु को गहराने दो,,
विचारों से उत्पन्न विचार
प्रकृति संग मनुष्य सम्बन्धों
को दे रहे हैं विस्तार ,,,,,
भावनाएँ संवेदनाएँ घुल रही
हृदय निकालता निष्कर्ष
गहराता जाए रहस्य जाल,,,।

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