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सशक्तीकरण,,,,अपनी सोच में लाएं

meriabhivyaktiya
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पता नही क्यों नारी सशक्तिकरण विषय से विरक्ति सी हो चली है,,,!! आज चहुँ ओर से महिला दिवस का हंगामा सुन ऐसा लग रहा है,,जैसे किसी ने मधुमक्खी के बड़े से छत्ते पर डंडा दे मारा है,,,और सब तरफ मधुमक्खियों का झुंड बिखर गया है। जैसे विचार मन में आ रहे हैं,,,वही लिखने को कलम छटपटा रही है,,,।
जब मैं छोटी थी,तब मेरी माँ ने मुझे बहुत रोक-टोक के साथ एंव यथासम्भव हर बार यह स्मरण कराते हुए बड़ा किया कि-“मै एक लड़की हूँ” मेरी एक मर्यादा रेखा है,मेरी एक स्त्रीगत गरिमा है,,लज्जा मेरा असल सौन्दर्य है।” पर तब मुझे इन बातों से बड़ी खीज मचती थी।
पर आज जब चारो तरफ एक अजीब सी डरावनी सामाजिक विकृति सुरसा सी मुँह दिनो-दिन बड़ा कर सब निगलने को तत्पर है,,,,,,तो पाती हूँ कि – मेरी माँ ने मुझे जिस तरह से पोषित किया वह बिल्कुल सही था।
आज़ादी मिल रही है,,,तो इसका मतलब ये नही के हम अपने प्राकृतिक गुणों की मर्यादा रेखा भूल कर अपने आप को सिद्ध करें।
मैं कुछ दिनों से नरेन्द्र कोहली जी की “सैरंध्री’ पढ़ रही हूँ,,,,। द्रौपदी भी एक सशक्त व्यक्तित्व की महिला थीं,,,,पर उनकों भी अपने स्त्रीगत मूल्यों और मर्यादाओं का ज्ञान था,,कई ऐसे प्रंसग पढ़ कर मैं अविभूत हो जाती हूँ कि-एक राजपुत्री,,,एक सशक्त राज्य की कुल वधु होकर भी उन्हे पता था कि- स्त्री सौन्दर्य किस प्रकार महान योगियों तक के योग को पथभ्रष्ट कर देता है।
और यह बहुत ही प्राकृतिक लक्षण हैं,,,,। वैदिक काल हो या आज का युग हम इस प्राकृतिक नियम पर बेतुके प्रश्न नही लगा सकते।
हम खुद को सृष्टि समझते हैं,तो फिर क्यों नही एक ऐसा सृजन रचते जहाँ एक नई सोच की फुलवारी लहराए,,,? हम खुद को ‘धरा’ कहते हैं,,जो सहनशीलता की मिसाल कायम करती है,,,तो फिर धरा सम कर्म करते समय हमारे मुख से ‘उफ्फ-आह’ निकल रही है,,,,खुद को साबित करना है,,तो हर प्रताड़ना से अनुभव प्राप्त कर खुद को कुंठित नही ,,,वरन स्व-सशक्तिकरण की ओर अग्रसर होइए,,,।
हम बड़ी-बड़ी महिलाओं के नाम गिनाते फिरते हैं,,,,ज़रा सोचकर देखिए,,क्या उनको सफलता पके आम के जैसे उनकी झोली में आ गिरी होगी,,,??? सशक्तीकरण खुद से,और खुद करना पड़ता है,,,,एक दूसरे पर दोष थोपकर या मांगकर नही,। यदि नारी है,,चाहे वो समाज के किसी भी वर्ग की हो,,,एक सामाजिक, पारिवारिक दोगलेपन का शिकार अवश्य होती है। उससे निबटना हमारी अपनी लड़ाई है,,,उसके लिए सबके सामने अपना रोना रोते रहें यह उचित नहीं।
यदि हम माँ का किरदार निभा रहे हैं तो हमें अपनी बच्चियों को उचित शिक्षा के साथ,,,प्रकृति गठित स्त्रीगत गरिमा एंव मर्यादा का पाठ सिखाना भी परम दायित्व का काम है।
ऐसे हंगामा कर याचना करने से कुछ नही होगा,,,बस एक व्यंग बन कर रह जाता है नारीत्व।
बाकी पुरूषों की सोच के बारे में मुझे कुछ नही कहना,,,,मुझे इतना पता है यदि मैं सीमा में रहूँ तो क्या मजाल के कोई रावण मेरी तरफ आंख उठाकर भी देख सके।
चार पंक्तियों के साथ…
एक बूंद ओस की,
मुझे शब्दों का सूरज नहीं
रात सी नमी चाहिए,,,

साभार
लिली

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