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ऑनलाइन खाने की ओर तेजी से बढ़ता रुझान

समाचार एजेंसी ऑफ इंडिया
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एक समय था जब परिवार में अगर मेहमान आते थे तो घरों में पकवान बना करते थे। खीर, पूड़ी, हलुआ, तरह तरह की सब्जियांनाना प्रकार के व्यंजन बनाना परिवारों का प्यारा शगल हुआ करता था। आज प्रौढ़ हो रही पीढ़ी के जेहन में यह बात विस्मृत नहीं हुई होगी कि घरों से बाहर जाकर होटल, रेस्तरां, ढाबों में खाने को उस दौर में उचित नहीं माना जाता था। घर में ही दूध की मलाई से घी बनाया जाता था। कंबल के टुकड़ों पर घी के दिए की लौ से काजल बनाकर उसका उपयोग किया जाता था। राई के तेल को सामने से पिरवाया जाता था ताकि मिलावट न हो पाए। सत्तर के दशक तक डालडा का प्रयोग नहीं के बराबर ही किया जाता था। समय का चक्र घूमता गया, दौड़ भाग वाली जिंदगी को लोगों ने अपनाया, डब्बा बंद खाद्य पदार्थ की संस्कृति आई और हावी होती चली गई। अब तो ऑन लाईन खाना बुलाने की संस्कृति ने पुरातन संस्कृति और परंपराओं को हाशिए पर लाकर खड़ा कर दिया है।

 

 

 

 

प्रौढ़ हो रही पीढ़ी को अगर परिवर्तन का साक्षात गवाह माना जाए तो अतिश्योक्ति नहीं होगी। पचास से सत्तर के बीच पैदा हुए लोग इस परिवर्तन को न केवल देखते आए हैं, वरन उन्होंने इसे महसूस भी किया है। इक्कीसवीं सदी में लोगों के रहन सहन में जबर्दस्त बदलाव देखने को मिला। वैसे तो अस्सी के दशक से ही महिलाओं ने घरों की दहलीज लांघना आरंभ कर दिया थापर उस समय कामकाजी महिलाओं की तादाद कम ही हुआ करती थी। जैसे जैसे समय बीता वैसे वैसे महिलाएं भी पुरूषों के कंधे से कंधा मिलाकर कामकाज, नौकरी, धंधा पानी आदि में जुटती दिखाई देने लगीं।

 

 

 

 

वर्तमान समय में कामकाजी महिलाओं की खासी तादाद देखने को मिलती है, जो इस बात का द्योतक कि भारत में अब महिलाओं को पुरूषों से कमतर नहीं आंका जा सकता। दशकों तक परिवार के संचालन की जवाबदेही, या यूं कहा जाए कि परिवार के भरण पोषण का जिम्मा पुरूषों पर ही होता था। बीसवीं सदी के अंतिम दशक के बाद महिलाओं ने परिवार को आर्थिक रूप से सक्षम बनाने में कोई कोर कसर नहीं रख छोड़ी।

 

 

 

 

महानगरों सहित छोटे, मंंझोले शहरों में आज पति पत्नि दोनों ही कामकाजी नजर आते हैं। यह संस्कृति दशकों से पाश्चात्य देशों में थी। अब भारत में भी यह आम हो चुका है। पति पत्नि दोनों ही अगर नौकरी करते हों, या रोजगार के लिए घरों से बाहर जाते हैं तो इसका प्रभाव संतानों पर भी पड़ता है। यह बात बच्चों के व्यवहार से भी परिलक्षित होती दिखती है। वैसे आज की जनरेशन ने इस बात को अंगीकार कर लिया है। वे माता पिता द्वारा कम समय दिए जाने के बाद भी अपने काम खुद ही करने में सक्षम बन गए हैं।

 

 

 

 

बहरहाल, हम बात कर रहे हैं ऑनलाइन फूड के बारे में इसलिए इसके पीछे की पृष्ठभूमि के बारे में चर्चा आवश्यक थी। अब जबकि पति पत्नी दोनों ही नौकरीपेशा या बिजनेस में हैं, या पुरूष या महिला अकेले ही रहकर नौकरी कर रहे हैं, इसलिए उनके पास दिन भर के कामकाज से थककर फिर भोजन बनाने की जद्दोहद करने के लिए समय नहीं रह जाता है। यही कारण है कि अब बाहर खाने या बाहर से खाना बुलाने की निर्भरता बढ़ती जा रही है।

 

 

 

इक्कसवीं सदी के पहले दशक में होटल्स से होम डिलेवरी की सुविधा आरंभ की गई थी। घरों के आसपास के होटल्स में इस तरह की सुविधा मिल जाती थी। उस दौर में दिल्ली, मुंबई और अन्य महानगरों में होटल, ढाबों, रेस्टारेंट से महज एक से तीन किलोमीटर की दूरी तक ही होम डिलीवरी की सुविधा दी जाती थी। जैसे जैसे इसका चलन बढ़ा वैसे वैसे इसका व्यवसायीकरण भी होने लगा। अब अनेक कंपनियां महानगरों के साथ ही साथ छोटे शहरों में भी ऑनलाइन खाना डिलीवरी के काम को बहुत ही करीने से करती हैं। कंपनियों ने एप भी विकसित किए हैं। इसमें तरह तरह की छूट भी प्रदान की जा रही है,जिससे लोग इसकी ओर आकर्षित होते भी दिख रहे हैं। घर से बाहर रहकर पढ़ने वाले विद्यार्थियों के लिए भी यह सुविधा किसी वरदान से कम नहीं दिख रही है।

 

 

 

 

महानगरों में शुद्ध पेयजल मिलना मुश्किल ही माना जाता है। नब्बे के दशक में महानगरों में बीस लीटर के पानी के कंटेनर्स मिला करते थे। यह पानी महज 15 रूपए प्रति लीटर मिला करता था। इसके बाद इस मामले में भी जबर्दस्त क्रांति देखने को मिली। आज महानगरों के साथ ही साथ छोटे मंझोले शहरों में भी बीस लीटर वाले कंटेनर्स में पानी यहां तक कि मशीन से ठंडा किया गया पानी आसानी से मिल जाता है। गर्मी के दिनों में व्यापारियों के द्वारा इस तरह के कंटेनर्स को बहुतायत में लाया जाता है। इस पानी की शुद्धता की गारंटी तो नहीं होती पर लोग इसका उपयोग करते दिखते हैं।

 

 

 

आज भागती जिंदगी में जब दंपत्ति या अकेला युवक अथवा युवती दिन भर काम करने के बाद घर पर लौटता है तो उसके पास खाना बनाने की ताकत भी नहीं रह जाती है। खाना खाते खाते उसे समाचार भी देखने होते हैं, अपनी पसंद के सीरियल का भी लुत्फ उठाना होता है। इसलिए उसके लिए ऑनलाइन खाना बेहतर विकल्प बना है। ये परिस्थितियां ऑनलाइन खाने के लिए बेहतर मार्ग प्रशस्त करते भी दिखती हैं। लोगों को आसानी से खाना मिल जाता है। 

 

 

 

 

ऑनलाइन खाना मंगाने की सुविधा के चलते अब होटल संचालकों द्वारा भी खाने की गुणवत्ता विशेषकर स्वाद पर विशेष ध्यान दिया जा रहा है। कल तक होटल या रेस्टरां को सजाने, दमकाने में ही भारी भरकम राशि खर्च करनी पड़ती थी। अब तो आपको यह भी पता नहीं चल पाता है कि आपका खाना जहां से मंगाया जा रहा है वह रेस्टारेंट किस तरह का है। यही कारण है कि अब छोटे होटल्स वालों के द्वारा भी ऑनलाइन खाना प्रदान करने वाली कंपनियों के साथ मिलकर खाने की मात्रा और स्वाद पर ध्यान केंद्रित किया हुआ है। अब तो अनेक ग्रहणियां भी ऑनलाइन सेवा प्रदाता कंपनियों से मिलकर खाना बेच रहीं हैं।

 

 

 

 

लोगों की स्मृति से यह बात विस्मृत नहीं हुई होगी कि होली, दीपावली, मकर संक्रांति आदि पर्वों पर घरों में तरह तरह के पकवान, नमकीन, तिल के लड्डू आदि बना करते थे। अब तो बाजार उपभोक्ता की जेब में समा चुका है। एक क्लिक पर ही सब कुछ मुहैया हो रहा है। अब न तिल लाने का चक्कर, न धोने, सुखाने की झंझट, न गुड़ उबालकर उसमें तिल मिलाने का इंतजार,अब तो सब कुछ एक सेकन्ड में ही आपके पास पहुंच जाता है। अब तो आपको अपनी इच्छानुसार मात्रा में ही सब कुछ आसानी से मिल सकता है। आप चाहें तो आधा पाव पेड़े भी ऑनलाइन मंगा सकते हैं। आपको स्वादिष्ट व्यंजन एक क्लिक पर महज दस मिनट से आधे घंटे में मिल सकता है। यह स्वादिष्ट तो होगा, पर इसकी गुणवत्ता कैसी होगी, यह कहना कठिन ही है। अभी इस भोजन क्रांति कहे जाने वाले व्यापार ने पैर पसारे हैं। आने वाले समय में यह किस हद तक और किस स्वरूप में जाएगा यह कहना फिलहाल जल्दबाजी ही होगी। 

 

 

 

नोट : यह लेखक के निजी विचार हैं, इसके लिए वह स्‍वयं उत्‍तरदायी हैं। संस्‍थान का कोई लेना देना नहीं है।

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