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आल इंडिया रेडियो में अपने भी हो गए पराए!

समाचार एजेंसी ऑफ इंडिया
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यह बात सही है कि अब वह समय आ गया है कि भारत का इतिहास या यूं कहा जाए कि सही इतिहास के पुर्नलेखन को अगली पीढ़ी के सामने सही तरीके से पेश किया जाए। आजादी के बाद से अब तक क्या क्या चीजें छूट गईं हैं या किन किन चीजों में तब्दीली की जानी चाहिए, उस बारे में भी हुक्मरानों को विचार करने की जरूरत है। इसे विडम्बना ही कहा जाएगा कि आल इंडिया रेडियो की विदेश प्रसारण सेवा में नेपाली भाषा को विदेशी भाषा की फेहरिस्त में रखा गया है, जबकि भारत गणराज्य के अभिन्न अंग सिक्किम की आधिकारिक भाषा नेपाली ही है। जब देश आजाद हुआ था उस समय के भौगोलिक और राजनैतिक नक्शों में अनेक तब्दीलियां हो चुकी हैं, पर इसके साथ ही अनेक बातें आज भी विसंगतियों के रूप में मौजूद हैं। यह कम आश्चर्य की बात नहीं है कि आल इंडिया रेडियो आज भी नेपाली भाषा को विदेशी भाषा ही मानता है।

 

 

 

 

आज के दौड़ते भागते युग में देश के बारे में बच्चों और युवा होती पीढ़ी का सामान्य ज्ञान काफी हद तक कमजोर माना जा सकता है। देश में कितने राज्य और उनकी राजधानियों के बारे में सत्तर फीसदी लोगों को पूरी जानकारी न हो तो किसी को आश्चर्य नहीं होना चाहिए। किस सूबे की आधिकारिक भाषा क्या है, इस बात की जानकारी युवाओं को तो छोडि़ए भारत सरकार के सूचना और प्रसारण मंत्रालय के आला अधिकारियों को भी नहीं है।

 

 

 

 

सिक्किम भारत देश का हिस्सा है। चीन भी इस बात तो स्वीकार कर चुका है। भारत गणराज्य के सूचना प्रसारण मंत्रालय और प्रसार भारती के अधीन काम करने वाला ऑल इंडिया रेडियो (एआईआर) इस राय से इत्तेफाक रखता दिखाई नहीं देता है। एआईआर की विदेश प्रसारण सेवा में एआईआर को आज भी विदेशी भाषा का दर्जा दिया गया है, जबकि सिक्किम की आधिकारिक भाषा नेपाली ही है। इतना ही नहीं 1992 में संविधान की आठवीं अनुसूची में नेपाली को शामिल किया जा चुका है। एआईआर की हिम्मत तो देखिए इसकी अनदेखी कर एक तरह से एआईआर द्वारा संविधान की ही उपेक्षा की जा रही है।

 

 

 

 

भारत गणराज्य के गणतंत्र की स्थापना के साथ ही 1950 में तत्कालीन प्रधानमंत्री पंडित जवाहर लाल नेहरू के कार्यकाल में विदेशों में कल्चर प्रोपोगंडा करने की गरज से विदेश प्रसारण सेवा का श्रीगणेश किया गया था। इस सेवा का कूटनीतिक महत्व भी होता था, इसमें विदेश प्रसारण सेवा के तहत वहां बोली जाने वाली भाषा में प्रोग्राम का प्रसारण किया जाता था। एआईआर ने वहां की भाषा के जानकारों की अलग से नियुक्ति की थी।

 

 

 

मजे की बात तो यह है कि विदेश प्रसारण सेवा में काम करने वाले अधिकारियों कर्मचारियों के वेतन भत्ते और सेवा शर्तें भारत में काम करने वाले कर्मचारियों से एकदम अलग ही होते हैं। 50 के दशक में जिन देशों को विदेश प्रसारण सेवा के लिए चिन्हित किया था, उनमें पाकिस्तान, अफगानिस्तान, आस्टेªलिया, ईस्ट और वेस्ट आफ्रीका, न्यूजीलेंड, मारीशस, ब्रिटेन, ईस्ट और वेस्ट यूरोप, नार्थ ईस्ट, ईस्ट एण्ड साउथ ईस्ट एशिया, श्रीलंका, म्यामांर, बंग्लादेश आदि शामिल थे।

 

 

 

 

एआईआर द्वारा नेपाली भाषा को विदेशी भाषा का दर्जा दिए जाने के बावजूद भी अनियमित (केजुअल) अनुवादक और उद्घोषकों को भारतीय भाषा के अनुरूप भुगतान किया जा रहा है, जो समझ से परे ही है। बताते हैं कि कुछ समय पहले केजुअल अनुवादक और उद्घोषकों द्वारा भुगतान लेने से इंकार कर दिया गया था। बाद में समझाईश के बाद मामला शांत हो सका था। उधर पड़ोसी मुल्क नेपाल जहां की आधिकारिक भाषा नेपाली ही है, ने भारत के ऑल इंडिया रेडियो के इस तरह के कदम पर एआईआर के मुंह पर एक जबर्दस्त तमाचा जड़ दिया है।

 

 

 

नेपाल में उपराष्ट्रपति पद की शपथ परमानंद झा द्वारा हिन्दी में लेकर एक नजीर पेश कर दी। इतना ही नहीं नेपाल सरकार ने एक असाधारण विधेयक पेश कर लोगों को चौंका दिया हैै। इस विधेयक में देश के महामहिम राष्ट्रपति और उपराष्ट्रपति पद की शपथ मातृभाषा में लिए जाने का प्रस्ताव दिया गया था। अब सवाल यह उठता है कि 1992 में आठवीं अनुसूची में शामिल किए जाने के 18 साल बाद भी इस मामले को लंबित कर लापरवाही क्यों बरती जा रही है। यह अकेला एसा मामला नहीं है, जबकि हिन्दी को मुंह की खानी पड़ी हो। वैसे भी हिन्दी देश की भाषा है। लोगों के दिलोदिमाग में बसे महात्मा गांधी, पहले प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू से लेकर आज तक के निजाम हिन्दी को प्रमोट करने के नारे लगाते आए हैं, पर हिन्दी अपनी दुर्दशा पर आज भी आंसू बहाने पर मजबूर हैं।

 

 

 

 

 

लोग कहते हैं कि दिल्ली हिन्दी नहीं अंग्रेजी में कही गई बात ही सुनती है। हिन्दी सहित भारतीय भाषाओं के प्रोत्साहन के लिए अब तक करोडों अरबोें रूपए खर्च किए जा चुके हैं, दूसरी ओर सरकारी तंत्र द्वारा हिन्दी को ही हाशिए पर लाने से नहीं चूका जाता है। हिन्दी भाषी राज्यों में ही हिन्दी की कमर पूरी तरह टूट चुकी है। ईएसडी के प्रोग्राम में प्रेस रिव्यू नाम का प्रोग्राम होता है। इसमें भारतीय अखबारों में छपी खबरों और संपादकीय का जिकर किया जाता है। विडम्बना देखिए कि इसमें हिन्दी में छपे अखबारों को शामिल नहीं किया जाता है। 

 

 

 

 

भारत की आधिकारिक भाषा हिन्दी को ही माना जाता है। हिन्दी के उत्थान के लिए न जाने कितने जतन दशकों से किए जाते रहे हैं। कभी कंप्यूटर या इंटरनेट की कमांड अंग्रेजी भाषा में देने पर ही आप इस पर काम कर पाते थे। संचार क्रांति के इस युग में अब तो मोबाईल पर भी हिन्दी का जलजला किसी से छिपा नहीं है। इंटरनेट पर पहले हिन्दी के किसी फॉन्‍ट में इबारत को टाईप करने के बाद उसे ट्रांसलेटर के जरिए यूनिकोड में तब्दील कर ही इंटरनेट पर इसका उपयोग किया जा सकता था। समय बदला और अब तो मोबाईल पर भी हिन्दी टूल किट मौजूद है, जिसकी मदद से लोग मोबाईल पर भी हिन्दी में आसानी से टाईप कर अपनी भावनाएं प्रदर्शित करने में सक्षम हैं।

 

 

 

 

अब वह समय आ गया है कि देश में सात दशकों में जो हुआ उस पर एक बार विमर्श किया जाए। तब्दीलियों के इस दौर में जो बातें छूट गईं हैं उन्हें बेहिचक स्वीकार किया जाए। न केवल स्वीकार किया जाए वरन उन गलतियों को ठीक करने की दिशा में पहल की जाना भी जरूरी है। अगर ऐसा नहीं हुआ तो अधकचरी व्यवस्था और ज्ञान के जरिए युवा पीढ़ी को हम जो विरासत देकर जाएंगे। वह आने वाले दशकों में उनके लिए परेशानी का सबब बनकर रहेगी। इसलिए अभी भी समय है। समय रहते इस गलती को सुधारा जाए। इसके लिए सारे सियासी दलोंं को एकजुट होकर काम करने की आवश्यकता है। सभी को निहित स्वार्थ और अन्य तरह के लाभ की कामना किए बिना सशक्त भारत बनाने के लिए उन सभी विसंगतियों को ढूंढकर सामने लाते हुए उनमे सुधार के मार्ग प्रशस्त करना ही होगा।

 

 

 

 

नोट : यह लेखक के निजी विचार हैं, इनसे संस्‍थान का कोई लेना-देना नहीं है।

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