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भारत में अनगिनत भाषाएं बोली जाती हैं। हर पंद्रह से बीस किलोमीटर की दूरी पर भाषा में तब्दीली आ जाती है। देश में कितनी भाषाएं बोली जाती हैं, इसकी अधिकारिक जानकारी शायद ही किसी के पास हो। लगभग छः दशक पहले 1961 में जब जनगणना हुई थी उस दौरान 1652 भाषाओं के बारे में जानकारी प्राप्त हुई थी। 1971 में जब जनगणना हुई तब भारतीय भाषाओं की जानकारी पर से कुहासा साफ हुआ और भारतीय भाषाओ की संख्या 108 के रूप में सामने आई। सरकार का मानना था कि कम से कम दस हजार लोगों के बीच अगर कोई भाषा बोली जाए तो उसे ही भाषा की सूची में शामिल किया जा सकता था।
एक संस्था के द्वारा लोगों के द्वारा बोली जाने वाली भाषाओं पर सर्वे किया गया तो यह बात निकलकर सामने आई कि देश में लगभग आठ सौ के लगभग भाषाएं बोली जाती थीं। देश भर के 29 राज्यों और इसके अलावा केंद्र शासित प्रदेशों में न जाने कितनी भाषाएं बोली जाती हैं इस पर शोध की महती जरूरत महसूस हो रही है। माना जा रहा है कि भारतीय भाषाओं में से लगभग ढाई सौ से अधिक भाषाएं विलुप्त हो चुकी हैं।
जानकारों का मानना है कि देश में भारतीय भाषाओंं के विलुप्त होने के पीछे अनेक कारण हैं। इसमें प्रमुख रूप से यह बात उभरकर सामने आई है कि समुद्र किनारे रहने वाले अनेक लोग जो मछली पकड़ने का काम किया करते थे उनका पलायन वहां से हो गया है। समुद्र किनारे रहने वालों की भाषाएं विलुप्त होने का कारण उनका वहां से तेजी से हुआ पलायन है। इसके अलावा बंजारा समुदाय जो यहां वहां घूम घूमकर जीवन यापन करता था, उनकी भाषा भी अपने आप में अजूबी ही मानी जाती थी। आज घुमंतु माना जाने वाला बंजारा समुदाय के लोगों की तादाद भी कम ही दिख रही है। घूम घूमकर आजीविका अर्जन के बजाए इस समुदाय के लोग शहरों में जाकर अपनी पहचान बनाने की जुगत में दिख रहे हैं।
कहा जाता है कि भारतीय भाषाओं का इतिहास लगभग सत्तर हजार साल पुराना है, जबकि भाषाएं को लिपिबद्ध करने, लिखने का इतिहास महज चार हजार साल पुराना ही है। हर भाषा में जीवन शैली, रहन सहन, पर्यावरण, खान पान आदि का अपना ज्ञान का भण्डार होता है। इसके विलुप्त होने से इसके गर्भ में छिपी अनेक चीजें भी विलुप्त हो जाती हैं, इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता है। भाषाओं के विलोपन से संस्कृति का हास भी होता आया है।
विशेष रूप से जिन भाषाओं को सिर्फ बोला जाता था, जिन्हें लिपिबद्ध नहीं किया जाता था उनके विलुप्त होने के कारण सांस्कृतिक, पुरातात्विक महत्व की अनेक चीजों के नष्ट होने का खतरा बढ़ जाता है। भाषाओं को बचाने के लिए सरकारों को प्रयास करने की जरूरत है। अनेक प्रदेशों में बंजारा सहित अन्य समुदायों के उत्थान के लिए प्रयास किए जा रहे हैं, पर ये प्रयास नाकाफी ही दिखते हैं। इसके लिए सरकारों को अपने अपने सूबों में विलुप्त हो रही भाषाओं को बचाने के लिए प्रयास करना होगा।
आज हिन्दी का ही उदहारण अगर लिया जाए तो शुद्ध हिन्दी शायद ही कोई बोलता दिखता हो। हिन्दी में उर्दू, एवं अंग्रेजी मिश्रित जिसे हिंगलिश कहा जाता है का समावेश हो गया है। गांवों में बोली जाने वाली बोली अब नए स्वरूप में आ चुकी है। गांव के लोग भी अपनी मूल भाषा के बजाए हिंगलिश के शब्दों का प्रयोग करते दिखते हैं। देश की मूल भाषा हिन्दी है पर अनेक कार्यालयों में आज भी अंग्रेजी में ही काम होता है। हिन्दी के प्रोत्साहन के लिए सिर्फ और सिर्फ हिन्दी दिवस पर ही लोग चिंता जाहिर करते दिखते हैं।
आज पचास को पार कर चुकी पीढ़ी अखबारों की नियमित पाठक है, पर युवा वर्ग को अखबारों से कोई सरोकार नजर नहीं आता। ऐसा नहीं है कि युवाओं को खबरों से लेना देना नहीं है। आज पचास से ज्यादा आयु के लोग सुबह उठते ही सबसे पहले अखबार खोजते हैं, पर युवाओं की जब आंख खुलती है तो वे सबसे पहले मोबाईल खोजते हैं। जाहिर है अखबारों के प्रति उनका लगाव नहीं के बराबर ही रह गया है।
लगभग साठ सालों में देश में हिन्दी बोलने वालों की तादाद 26 करोड़ से बढ़कर 45 करोड़ से ज्यादा हो गई है, पर अंग्रेजी बोलने वालों की तादाद 33 करोड़ से बढ़कर 58 करोड़ से ज्यादा तक पहुंच चुकी है। भारत सरकार को चाहिए कि उसके द्वारा अभियान चलाया जाकर यह पता किया जाए कि देश में कुल कितने तरह की भाषाएं बोली जाती हैं, उनके नाम क्या हैं, एवं इनके संरक्षण की दिशा में क्या प्रयास किए जा सकते हैं! अन्यथा तेजी से विलुप्त हो रही भारतीय भाषाओं के लिए देश में कब्रगाह की स्थिति न निर्मित हो जाए।
नोट : यह लेखक के निजी विचार हैं और इसके लिए वह स्वयं उत्तरदायी हैं।
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