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वैज्ञानिकों को कोहरे में विजिबिलिटी बढ़ाने के तरीके ढूंढने होंगे

समाचार एजेंसी ऑफ इंडिया
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नवंबर से फरवरी माह तक सर्दी का कहर रहता है। सर्दी में पहाड़ी इलाकों, दिल्ली के आसपास सहित अन्य जगहों पर कोहरे की मार इतनी जबर्दस्त रहती है कि परिवहन के कमोबेश सभी साधन रेंगते नजर आते हैं। विमान सेवाओं पर भी इसका प्रभाव जबर्दस्त ही पड़ता है। नवंबर से फरवरी के बीच पड़ने वाली सर्दी के बीच अगर कहीं बारिश हो जाए तो कोहरे की संभावनाएं और अधिक बलवती हो जाती हैं। मनुष्य चांद पर जा पहुंचा है। अंतरिक्ष में जगह जगह उसकी दखल बढ़ती जा रही है पर अब तक कोहरे से निपटने या कोहरे के बीच दृश्यता बढ़ाने के मामले में वैज्ञानिक विजय नहीं पा सके हैं।

 

 

 

आंकडों के अनुसार सड़क दुर्घटनाओं में साल दर साल मरने वालों की संख्या में बढोत्तरी के लिए कोहरा एक प्रमुख कारक के तौर पर सामने आया है। अमूमन नवंबर के अंतिम सप्ताह से फरवरी के पहले सप्ताह तक उत्तर भारत के अधिकांश क्षेत्र काहरे की चादर लपेटे हुए रहते हैं।

 

 

कोहरे के चलते कहीं कहीं तो दृश्यता (विजीबिलटी) शून्य तक हो जाती है। रात हो या दिन वाहनों की तेज लाईट भी बहुत करीब आने पर चिमनी की तरह ही प्रतीत होती है। यही कारण है कि घने कोहरे के कारण सर्दी के मौसम में सडक दुर्घटनाओं में तेजी से इजाफा होता है।

 

 

कोहरे के बारे में प्रचलित तथ्यों के अनुसार सापेक्षिक आद्रता सौ फीसदी होने पर हवा में जलवाष्प की मात्रा एकदम स्थिर हो जाती है। इसमें अतिरिक्त जलवाष्प के शामिल होने अथवा तापमान में और अधिक कमी होने से संघनन आरंभ हो जाता है। इस तरह जलवाष्प की संघनित सूक्ष्म सूक्ष्म पानी की बूंदें इकट्ठी होकर कोहरे के रूप में फैल जातीं हैं।

 

 

 

पानी की एक छोटी सी बूंद के सौंवे हिस्से को संघनन न्यूक्लियाई अथवा क्लाउड सीड भी कहा जाता है। धूल मिट्टी के साथ तमाम प्रदूषण फैलाने वाले तत्व क्क्लाउड सीड की सतह पर आकर एकत्र होते हैं, और इस तरह होता है कोहरे का निर्माण। वैज्ञानिकों के अनुसार यदि वायूमण्डल में इन सूक्ष्म कणों की संख्या बहुत ज्यादा हो तो सापेक्षिक आद्रता शत प्रतिशत से कम होने के बावजूद भी जलवाष्प का संघनन आरंभ हो जाता है।

 

 

 

दरअसल बूंदों के रूप में संघनित जलवाष्प के बादल रूपी झुंड को कोहरे की संज्ञा दी गई है। कोहरा वायूमण्डल में भूमि की सतह से कुछ उपर उठकर फैला होता है। कोहरे में आसपास की चीजें बहुत ही कम दिखाई पडती हैं। दिल्ली में दिसंबर से फरवरी तक कोहरे के कारण आवागमन के साधन निर्धारित समय से देरी से ही या तो आरंभ होते हैं अथवा पहुंचते हैं।

 

 

 

दरअसल प्रदूषण भी कोहरे के बढने के लिए उपजाऊ माहौल पैदा कर रहा है। आंकडे बताते हैं कि 1980 के दशक में देश में घने कोहरे का औसत समय आधे घंटे था, जो बढकर 1995 में एक घंटा और फिर गुणोत्तर तरीके से बढते हुए 02 से 04 घंटे तक पहुंच गया है। जानकारों का मानना है कि साठ के दशक के उपरांत आज घने कोहरे का समय लगभग बीस से पच्चीस गुना बढ चुका है।

 

 

 

विडम्बना ही कही जाएगी कि इक्कीसवीं सदी में भी भारत ने कोहरे से निपटने के लिए कोई ठोस कार्ययोजना अब नहीं बना सकी है। माना जाता है कि सरकार इस समस्या को साल भर में एक से डेढ माह की समस्या मानकर ही छोड देती है, जबकि वास्तविकता यह है कि कोहरे के चलते देश में हर साल आवागमन के दौरान होने वाली मौतों में से 04 फीसदी मौतें पुअर विजिबिलटी के कारण होती हैं।

 

 

अब आवश्यकता महसूस की जाने लगी है कि कोहरे में दृश्यता को कैसे बढ़ाया जाए। इसके लिए विशेष तरह के लैंप विकसित किए जाएं। वैसे वर्तमान में इस तरह की लाईट आती हैं जिन्हें फाग लैंप की श्रेणी में रखा जाता है। इस तरह के लैम्पस या लाईट्स से दृश्यता कुछ हद तक बढ़ी हुई प्रतीत होती है पर इसमें अभी बहुत सुधार या उच्च तकनीक की दरकार है।

 

 

 

नोट: यह लेखक के निजी विचार हैं। इनसे संस्‍थान का कोई लेना-देना नहीं है।

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