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समाज तो चाहता है पर क्या सरकारें चाहती हैं महिलाओं की भलाई

समाचार एजेंसी ऑफ इंडिया
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देश में कई राजनीति से लेकर कारपोरेट और अन्य क्षेत्रों में कई महिलाएं अपनी काबिलियत का लोहा मनवा रही हैं। देश में प्रतिभा पाटिल के रूप में पहली महिला राष्ट्रपति मिलीं। अनेक प्रदेशों में महामहिम राज्यपाल महिला हैं, कांग्रेस की चेयर पर्सन भी महिला हैं। इसके बाद भी देश में महिलाओं की स्थिति में अपेक्षित सुधार नहीं देखा जाना वाकई में चिंता का विषय माना जा सकता है। महिला आरक्षण विधेयक भी अब तक लागू नहीं हो सका है। लोकसभा, राज्य सभा या विधान सभाओं में महिलाओं के लिए सीटों में आरक्षण भी नहीं है। स्थानीय निकायों में अलबत्ता इसे लागू किया गया है। जब स्थानीय निकायों में इसे लागू किया जा सकता है तो निश्चित तौर पर लोकसभा और विधान सभाओं में महिलाओं के लिए सीटों का आरक्षण तो किया ही जा सकता है।

 

 

महिलाओं के फायदे वाले सारे विधेयक आज भी सरकार की अलमारियों में पड़े हुए धूल खा रहे हैं। लोकसभा और विधानसभाओं में महिलाओं को एक तिहाई (33 फीसदी) भागीदारी सुनिश्चित करने संबंधी विधेयक अंततः लोकसभा में पारित ही नहीं हो सका। राजनैतिक लाभ हानि के चक्कर में संप्रग सरकार ने इस विधेयक को हाथ लगाने से परहेज ही रखा। इसके बाद नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में दूसरी बार सरकार काबिज हुई पर वर्तमान में ही यह अधर में ही प्रतीत हो रहा है।

 

 

 

 

महिलाओं की हालत क्या है यह बताता है उत्तर प्रदेश में किया गया एक सर्वेक्षण। सर्वे के अनुसार 1952 से 2002 के बीच हुए 14 विधानसभा चुनावों में प्रदेश में कुल 235 महिला विधायक ही चुनी गईं थीं। इनमें से सुचिता कृपलानी और मायावती ही एसी भाग्यशाली रहीं जिनके हाथों मंे सूबे की बागड़ोर रही। इसके बाद भी उत्तर प्रदेश में ज्यादा तादाद में महिलाएं चुनकर नहीं आईं।

 

 

 

 

चुनाव की रणभेरी बजते ही राजनैतिक दलों को महिलाओं की याद सतानी आरंभ हो जाती है। चुनावी लाभ के लिए वालीवुड के सितारों पर भी डोरे डालने से बाज नहीं आते हैं, देश के राजनेता। भीड़ जुटाने और भीड़ को वोट मंे तब्दील करवाने की जुगत में बड़े बड़े राजनेता भी रूपहले पर्दे की नायिकाओं की चिरोरी करते नज़र आते हैं।

 

 

 

देश के ग्रामीण इलाकों में महिलाओ की दुर्दशा देखते ही बनती है। कहने को तो सरकारों द्वारा बालिकाओं की पढ़ाई के लिए हर संभव प्रयास किए हैं। किन्तु ज़मीनी हकीकत इससे उलट है। गांव का आलम यह है कि स्कूलों में शौचालयों के अभाव के चलते देश की बेटियां पढ़ाई से वंचित हैं।

 

 

 

प्राचीन काल से माना जाता रहा है कि पुरातनपंथी और लिंगभेदी मानसिकता के चलते देश के अनेक हिस्सों मंे लड़कियों को स्कूल पढ़ने नहीं भेजा जाता। एक गैर सरकारी संगठन द्वारा कराए गए सर्वे के अनुसार उत्तर भारत के अनेक गांवों में बेटियों को शाला इसलिए नहीं भेजा जाता, क्योंकि वे अपनी बेटी को शिक्षित नहीं करना चाहते। इसकी प्रमुख वजह गांवों मंे शौचालय का न होना है, यह है केंद्र के मर्यादा अभियान की जमीनी हकीकत।

 

 

 

शौचालयों के लिए केंद्र सरकार द्वारा समग्र स्वच्छता अभियान चलाया है। इसके लिए अरबों रूपयों की राशि राज्यों के माध्यम से शुष्क शोचालय बनाने में खर्च की जा रही है। सरकारी महकमों के भ्रष्ट तंत्र के चलते इसमें से अस्सी फीसदी राशि गैर सरकारी संगठनों के माध्यम से सरकारी मुलाजिमों ने डकार ली होगी।
सदियों से यही माना जाता रहा है कि नारी घर की शोभा है। घर का कामकाज, पति, सास ससुर की सेवा, बच्चों की देखभाल उसके प्रमुख दायित्वों में शुमार माना जाता रहा है। अस्सी के दशक तक देश में महिलाओं की स्थिति कमोबेश यही रही है। 1982 में एशियाड के उपरांत टीवी की दस्तक से मानो सब कुछ बदल गया।

 

 

 

 

नब्बे के दशक के आरंभ में महानगरों में महिलाओं के प्रति समाज की सोच में खासा बदलाव देखा गया। इसके बाद तो मानो महिलाओं को प्रगति के पंख लग गए हों। आज देश में जिला मुख्यालयों में भी महिलाओं की सोच में बदलाव साफ देखा जा सकता है। कल तक चूल्हा चौका संभालने वाली महिला के हाथ आज कंप्यूटर पर जिस तेजी से थिरकते हैं, उसे देखकर प्रोढ़ हो रही पीढी आश्चर्य व्यक्त करती है।

 

 

 

 

कहने को तो आज महिलाएं हर क्षेत्र में आत्मनिर्भर हैं, पर सिर्फ बड़े, मझौले शहरों की। गांवों की स्थिति आज भी दयनीय बनी हुई है। देश की अर्थव्यवस्था गावों से ही संचालित होती है। देश को अन्न देने वाले अधिकांश किसानों की बेटियां आज भी अशिक्षित ही हैं। सेना में जब महिलाओं को कमीशन देने की बात आई तब जिस तरह की दलीलें दी गईं वे महिलाओं के खिलाफ ही मानी जा सकती हैं। आज महिलाएं पुरूषों के कंधे से कंधा मिलाकर चलती नजर आती हैं, पर यह बात महानगरों को और कागजों तक ही सीमित रह गई है।

 

 

 

आधुनिकीकरण की दौड़ में बड़े शहरों में महिलाओ ने पुरूषों के साथ बराबरी अवश्य कर ली हो पर परिवर्तन के इस युग का खामियाजा भी जवान होती पीढ़ी को भुगतना पड़ रहा है। मेट्रो में सरेआम शराब गटकती और धुंए के छल्ले उड़ाती युवतियों को देखकर लगने लगता है कि भारतीय सभ्यता और संस्कृति कितने घिनौने स्वरूप को ओढ़ने जा रही है।

 

 

 

 

पिछले सालों के रिकार्ड पर अगर नज़र डाली जाए तो शराब पीकर वाहन चलाने, पुलिस से दुर्व्यवहार करने के मामले में दिल्ली की महिलाओं ने बाजी मारी है। टीवी पर गंदे अश्लील गाने, सरेआम काकटेल पार्टियां किसी को अकर्षित करतीं हो न करती हों पर महानगरों की महिलाएं धीरे धीरे इनसे आकर्षित होकर इसमें रच बस गईं हैं। हमें यह कहने में कोई संकोच नहीं कि महानगरों और गांव की संस्कृति के बीच खाई बहुत लंबी हो चुकी है, जिसे पाटना जरूरी है। अन्यथा एक ही देश में संस्कृति के दो चेहरे दिखाई देंगे।

 

 

 

बहरहाल सरकारों को चाहिए कि महिलाओं के हितों में बनाए गई योजनाओं को कानून में तब्दील करें, और इनके पालन में कड़ाई बरतें। वरना सरकारों की अच्छी सोच के बावजूद भी छोटे शहरों और गांव, मजरों टोलों की महिलाएं पिछड़ेपन को अंगीकार करने पर विवश होंगी।

 

 

 

 

 

नोट : यह लेखक के निजी विचार हैं, इनके लिए वह स्वयं उत्तरदायी हैं।

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