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मैंने जब अपनी पहली काव्य/गज़ल की पुस्तिका “क्षितिज” 1995 में लिखी थी तब पुस्तिका का टाईटल संजोग से ही “क्षितिज” रख़ा था।
मेरा मन जब भी क़ुदरत की हर भेंट को निहारता तब मैं बहोत ही झुमझुम जाया करती।
“क्षितिज” के उस पार पहोंच पाउं?????
“क्षितिज” के उस पार पहोंच ना नामुमकीन है ये तो सभी जानते हैं
……पर मेरी दुनिया अचानक इस तरहाँ बदल जाएगी मुझे ये तो मालुम ही नहिं था!!!! क्योंकि लगातार हर रोज़ एक पोस्ट लिखनेवाली मैं “मेरी आवाज़ सूनो” को कहाँ छोड आई?
“ क्षितिज” के “इस पार” पहोंच गई!!!!!! कैसे??????
जाना तो तय था ही मेरा। अपने वतन से दूर, अपने घर से दूर, अडोसी-पडोसी से दूर जा रही थी मैं।
“जागरण जंकशन” तो मेरे जीवन का एक सदस्य बन चूका था।
तभी मेरा जाना बडा ही दर्द भरा लगने लगा। और “क्षितिज” के इस पार ना तो कोई संदेशव्यव्हार था ना तो इंटरनेट कि सुविधा!!!!!
मेरा पहला क़दम वो बडे गेट पर आकर रुक गया।
कहाँ से आयेहो? पहला सवाल!!!
जी! मैं यहां पेटलाद से आई हुं। मेरा जवाब।
किससे मिलना है? दुसरा सवाल।
मैं अपना ओर्डर लेकर आईहुं मुझे आज यहाँ डीस्पेंसरी में अपनी जोब के लिये रीपोर्टींग करना है। मेरा जवाब।
”ठीक है आईये मेडम।
मैं अंदर दाखिल हुई। रीपोर्टींग करके मुझे अपनी सीट तक जाने के लिये एक छोटा किवाड पार करना था। अंदर जाते ही एक बडा मैदान और बगीचा नज़र आया जहाँ बिल्कुल सफ़ेद कपडे पहने कुछ लोग काम कर रहेथे। मुझे अजनबी समझकर देखने लगे पता नहिं मेरे बारे में क्या सोच रहेथे?
मेरे साथ एक कोंस्टेबल आया मेरी जगह तक पहोंचाने के लिये।
“स्त्री विभाग”।
बाहर गेट पर बैठे सफेद कपडेवाले बूढे बाबा ने एक मोटी-सी रस्सी ख़ींची।
ट्न…ट्न… ज़ोर से अंदर बेल बजने की आवाज़ आई।
थोडी ही देर में किसी की आहट सुनाई दी । शायद कोई ये बडे दरवाज़े को ख़ोल रहा था।
सफ़ेद ख़ादी की साडी पहनी एक अधेड महिला ने मुझे औपचारिक तौर पर “नमस्ते”का इशारा किया।
“क्षितिज” के इस पार………
“क्षितिज” के इस पार कि कहानी/वास्तविकता के साथ………..
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