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शायरी के पटल पर अपनी तरह के नितांत एकाकी हस्ताक्षर, निदा फ़ाज़ली मेरे प्रिय शायर हैं। एक बार दिल्ली में विश्व पुस्तक मेले में उन्हें देखा था। कुर्त्ता और अलीगढ़ी पाजामें में, कन्धों पर चादर लपेटे वे वाणी प्रकाशन के पंडाल से निकल रहे थे। गोरा, दीप्त चेहरा। मुंंह में पान। आंखों में एक तरलता लिए चमक। मैं सोचता रहा कि कुछ बात करूंं, मगर सोचता ही रह गया। फिर उनसे मैं कभी न मिल सका। फरवरी 2016 में उनके निधन का दुःखद समाचार मिला। दो दिन पूर्व, 12 अक्तूबर को निदा फ़ाज़ली की जन्म-वर्षगांठ थी।
उर्दू शायरी की रुमानियत की सीमा का अतिक्रमण करती हुई फ़ाज़ली की रचना धूल-पसीने में सनी, फुटपाथ के पत्थर की तरह खुरदरी है। किसी भी तरह के आरोपित आशावाद से रिक्त, वह इस ज़िन्दगी की समूची हिंसा, उसके नरक और इस गुत्थमगुत्थी के बीच एक अदम्य जिजीविषा से लथपथ है। जटिल कथ्य को भी उनकी शायरी गम्य भाषा और परिचित बिम्बों के द्वारा आसान बनाती है।
हर घड़ी ख़ुद से उलझना है मुक़द्दर मेरा,
मैं ही कश्ती हूंं, मुझी में है समंदर मेरा
जिस तरह हर प्रतिबद्ध शब्दकर्मी की नियति लड़ना है, फ़ाज़ली प्रतिगतिशील वामपंथी आंदोलन से जुड़े रहे और एक समतावादी स्वप्न के लिए लेखक और व्यक्ति, दोनों स्तरों पर संघर्षशील रहे।
निदा फाज़ली का वास्तविक नाम मुक़्तदा हसन है, मगर शब्दों के संसार में वे निदा फ़ाज़ली के रूप में जाने जाते हैं। उनकी लिखी गज़लें और शायरी इसी नाम से प्रकाशित हुईं। वस्तुत: ‘निदा’ का अर्थ ‘स्वर’ है और फ़ाज़िला क़श्मीर के एक इलाके का नाम है। निदा के पुरखे वहीं से आए थे। अपनी मिट्टी से भावनात्मक लगाव के कारण उन्होंने अपने नाम में ‘फाज़ली’ का उपनाम संलग्न कर लिया। साल 1964 में नौकरी की तलाश में निदा फाजली मुंबई आए और ‘धर्मयुग’ और ‘ब्लिट्ज’ पत्रिकाओं के लिए लिखना आरम्भ किया। उनके लेखन ने कुछ फ़िल्मी हस्तियों को आकर्षित किया और फ़ाज़ली फिल्मों के लिए लिखने लगे। उसी तरह जैसे वामपंथ से जुड़े हुए शैलेन्द्र और क़ैफ़ी आज़मी। बाजार में रह कर भी बाज़ारू हुए बिना। उनके फ़िल्मी गीत अपनी सादगी और अर्थवत्ता के लिए जाने जाते हैं।
कहीं नहीं कोई सूरज, धुआं-धुआं है फ़ज़ा,
ख़ुद अपने-आप से बाहर निकल सको, तो चलो
यद्यपि कि निदा फ़ाज़ली के संकलन ‘खोया हुआ सा कुछ’ को 2008 में साहित्य अकादमी पुरस्कार से सम्मानित किया गया और 2013 में भारत सरकार ने उन्हें पद्मश्री से पुरस्कृत किया, मगर वस्तुत: उन्हें वह पहचान नहीं मिली, जो उनकी योग्यता थी। जहां दो पुस्तकें लिख कर लेखक-कवि सुर्ख़ियों और समारोहों में छा जाते हैं, और तृतीय श्रेणी के गीतकार फ़िल्मी दुनिया में वर्चस्व बनाते हैं, फ़ाज़ली को उनका आसमान नहीं मिला।
कभी किसी को मुक़म्मल जहां नहीं मिलता,
कभी ज़मीं तो कभी आसमां नहीं मिलता
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