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दोस्‍त मेरी तन्‍हाइयों के

कहां-कहां न तलाशा है तुम्‍हें। अपने माजी में जाकर आवाज दी। मुस्‍तकबिल में भी टटोला। कई सर्द रातें बिछाई उन  राहों पर, जिनसे तुम बिन बुलाए अक्‍सर आ जाया करते थे। जाती भोर को रोक-रोक कर तुम्‍हारा पता पूछा है। पूरब में महावर भरी थाल से उभरते सूरज ने भी तेरी कोई खबर नहीं दी।
ऐसा भी होता था, जब सुनहली किरणों के स्‍पर्श से खुल जाते थे गुलों के लब। उड़ते परागकणों की तरह निकल आते थे तुम। मगर अब ऐसा नहीं होता। कभी अनछुई दूब पर ओस की बूंदों के बीच उभर आता था अक्‍स तेरा। वैसा भी नहीं होता अब। रैक  पर लगी किताबों के हर सफे से भी तुम नदारद ही नजर आते हो। हर सफर में तुम हमसफर हुआ करते थे कभी। अब हर सफर में खालिस मैं होता हूं, तन्‍हा-तन्‍हा। पर्वतों-वादियों, हर मंजर-नजारों में तुम सामने होते थे खिलखिलाते किसी झरने की तरह। सांझ के हसीन आंचल पर टंक जाया करते थे सितारों की तरह, बेशुमार सितारों की तरह। चांद और चांदनी की उजली कहानी तो तुम्‍हीं बयां किया करते थे। जब मैं अपने गांव के आखिरी छोर पर कलकल करती  सरयू के किनारे बैठता था, तुम लहर दर लहर अठखेलिया करते मेरे तसव्‍वुर को सींचा करते थे। जब भी खेतों से मिलने जाता था, तुम सरयू के टूटे पुल पर बैठे नजर आते। उसकी बदहाली की कहानियां बताने की कोशिश करते। तुमही बताते थे हम दुनिया की दौड़ में अब भी कितने पिछड़े हैं। सियासत की बेवफाई की कहानी तुम्‍हीं बयां करते थे। खेत पर कदम रखने से पहले माथे से लगाने के लिए जब भी एक चुटकी मिट्टी उठाता था, द्रवित भाव बनकर तुम्‍हीं दिल में बलबलाने लगते थे। लहलहाते हरे गेहूं के बीच सरसों के पीले फूलों पर झुक कर जब भी खुशबू चुराने की कोशिश करता तो तुम्‍हीं बताते थे, मेहनत की भीनी-भी इस खुशबू का मुकाबला दुनिया की कोई खुशबू नहीं कर सकती। तुम्‍हीं तो ख्‍वाबों को कागजों पर शक्‍ल दिया करते थे। कभी-कभी मूसलधार बारिश की बूंदों की तरह झरते थे और गीतों का सिलसिला बन जाता था। मायूसियों-दिल की उदासियों को गजल में गढ दिया करते थे, ठीक उसी तरह जैसे कोई कुम्‍हार चाक पर स्‍याह-सफेद मिट्टी से खूबसूरत गमले गढ़ देता है, उसमें कहीं-कहीं रेत के कण भी चमकते नजर आते हैं। हर लम्‍हा, हर जगह, हर शै में तुम कहीं न कहीं उभ्‍ार ही जाते थे किसी न किसी शक्‍ल में। मगर न जाने क्‍यों और कहां गुम हो। खुली डायरी के सफों पर कलम कभी कभार तनकर कमर सीधी कर लेती है, नहीं तो हमेशा करवट ही बदलती रहती है। किसी बिरहन की तरह। लेकिन तुम नही आते। मेरी तन्‍हाइयों के दोस्‍त-मेरे शब्‍द। कितना खुशगवार होता है शब्‍दों के साथ जीना और कितना खामोश दर्द दे जाता है शब्‍दों का बिछड़ जाना, यह तो अब आप भी समझ गए होंगे।