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पहचाना मुझे? ईमानदारी से बताना। नहीं न? मैं जानती हूं। तुम्हारे दिल के बहुत करीब जो होती हूं। सोते-जागते तुम्हारे साथ मेरा सानिध्य होता है। फिर भी तुम कभी-कभार ही पहचान पाते हो। अक्सर ऐसा होता है, जब सामने से गुजर जाते हो। मगर मेरे होने का एहसास नहीं हो पाता, शायद। तुम्हें क्या बताऊं, जब भूख से कोई बच्चा बिलबिलाता है, उसके आंसुओं में मैं होती हूं। जब कोई बच्चा किताब न खरीद पाने के कारण स्कूल छोड़ता है, उसकी कसमसाहट मैं होती हूं। सर्द रातों में फुटपाथ पर जब कोई बिन रजाई के ठिठुरता है, उसके कटकटाते दांतों की आवाज मैं ही तो होती हूं। कर्ज से आजिज कोई किसान अपने गले में फंदा कसता है, उसकी आखिरी बिलबिलाहट हूं मैं। ऊंची इमारतों में दफन होती सिसकियों में मैं होती हूं। झपडि़यों में झांझावात झेलती जिंदगी होती हूं मैं। अपना लहू जलाकर भी चंद घड़ी के लिए मुस्कान नहीं खरीद पाने की बेबसी मैं हूं। मध्यम वर्ग की रोजमर्रा की जिंदगी और बेमौत मार दिए जाने वाले सपनों की गवाह मैं हूं। सियासत की अंधी गलियों में जुगनू सी चमकती हूं। चेहरे के पीछे छिपे चेहरे के बारीक फासलों में होती हूं। धन कुबेरों की तिजोरियों तक जाने वाली हर राह को पहचानती हूं तो चौराहे पर खड़े खाकी वर्दी वाले की मुट्ठियों की गरमी तक में होती हूं। सूखा, बाढ़ और अतिवृष्टि के वक्त खुलने वाले चावल-दाल के गोदामों से लेकर बोफोर्स तोपखाने में होती हूं। जवानों के ताबूत में होती हूं। जुनून और दीवानगी में होती हूं। कामयाबी-नाकामयाबी की अनकही कहानियों में होती हूं, जिंदगी की हर रवानी में होती हूं। कहां नहीं होती हूं मैं ? जहां तुम चैन की सांस लेते हो या फिर जिस राह जाते हो, कदम-कदम पर किसी न किसी रूप में खड़ी-पड़ी बिखरी होती हूं। जिधर भी तुम्हारी नजर जाती है, मैं हर तरफ होती हूं। कभी ध्यान से देखना, डूबकर देखना। नजर आ जाऊंगी मैं। वैसे अभी-अभी जो बात कही है मैंने, उसे वापस लेती हूं। यही सोच रहे होगे, मैंने तुम पर बेख्याली का आरोप लगाया है। तुम्हारा ऐसा सोचना भी तो गलत नहीं है। यह भी तो हो सकता है कि तुम्हें सब नजर आता हो। लेकिन तुम्हारे पास शब्द नहीं हो। शब्द हों तो आवाज नहीं हो। अगर दोनों भी हो तो तुम्हारे हाथ बंधे हों। तुम्हारे होठ सिले हों। क्योंकि, कुछ तो मजबूरियां रही होंगी। कोई यूं ही बेवफा नहीं होता। चलो अपने बारे में कुछ और बातें बता दूं। अगर तुम क्षिति, जल, पावक, गगन, समीर जैसे पांच तत्वों से बने हो तो मैं भी पांच से। अब भी नहीं पहचाने? कैसे पत्रकार हो। मैं फाइव डब्ल्यू से बनी हूं। पहचान सको तो पहचान लो मुझे। पकड़ सको तो पकड़ लो मुझे। मैं खबर हूं, खबर। catch me if you can.
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चलते-चलते
खैर, पहचान की जद्दोजहद ने दिमाग का दही न बनाया हो तो मेरे एक सवाल का जवाब दे दीजिए जनाब। आज के दौर में असल पत्रकार कौन है? चलो, थक गए होगे। जवाब भी मैं ही दे देता हूं–असली पत्रकार वह है, जिसके पास अपना पत्र हो और हो अपनी कार। बाकी सारी योग्यताएं बेकार। –यह मैं नहीं कहता, किसी और से सुना है।
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