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जी हां, अनुशासन को ठेंगा दिखाइए। प्रमोशन मिलेगा, शर्तिया। मुझे मालूम है, अब आप लेक्चर देंगे कि अनुशासन ही व्यक्ति और देश को महान बनाता है। यह भी कहेंगे कि मैं क्या बकवास कर रहा हूं। लेकिन मेरी इस बात के पीछे ज्यादा नहीं तो कम से कम एक नजीर तो है ही। मेरी बात पर यकीन न हो रहा हो तो मैं आपको लेकर चलता हूं वर्ष 2011 में। शायद 10 जुलाई की बात है। गुवाहाटी से पुरी जा रही गुवाहाटी-पुरी एक्सप्रेस असम में रांगिया के निकट हादसे का शिकार हो गई थी। रेल महकमे का प्रभार प्रधानमंत्री के पास था और मुकुल रॉय को रेल राज्यमंत्री का अतिरिक्त प्रभार। हादसा बड़ा तो नहीं था। लेकिन, चूंकि प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह असम से राज्यसभा सदस्य हैं, लिहाजा उन्होंने मुकुल रॉय को निर्देशित किया कि दुर्घटनास्थल का दौरा कर लें। हालात का जायजा ले लें। मगर ऐसा हुआ नहीं। मुकुल रॉय साहब नहीं गए। उन्होंने जंगलमहल में अपनी पार्टी सुप्रीमो के साथ रहना ज्यादा उचित समझा। यह बात तब प्रधानमंत्री को नागवार भी गुजरी थी। इस कैलस एटीट्यूड यानी संवेदनहीनता को लेकर खिंचाई भी की थी। इसके पीछे रॉय साहब का जवाब था, अन्य रेल राज्यमंत्री भी तो थे जो मौके पर जा सकते थे। इसके साथ ही उन्हें रेल मंत्रालय के अतिरिक्त प्रभार को त्यागना पड़ा था। यह तो हुई बीती बात। अब नजर डालिए मौजूदा सूरत-ए-हाल पर। सरकार की मंशा के अनुरूप रेल मंत्री दिनेश त्रिवेदी ने रेल बजट पेश किया और उन्हें चलता कर दिया गया। अब मुकुल रॉय एक बार फिर ने रेल मंत्रालय संभाल लिया है। लेकिन इस बार बतौर राज्यमंत्री नहीं, बल्कि कैबिनेट मंत्री। अब आप मेरी बात से इत्तिफाक रखते हैं या नहीं कि अनुशासन को ठेंगा दिखाइए, प्रमोशन पाइए।
इस पूरे एपिसोड ने कुछ सवाल भी खड़े कर दिए हैं। तब प्रधानमंत्री का निर्देश न मानने वाले मुकुल रॉय, फिर प्रधानमंत्री के निर्देशों के अवहेलना नहीं करेंगे, इसकी क्या गारंटी है। दूसरा सवाल-सरकार को मुकुल रॉय जैसा कड़वा घूंट क्यों पीना पड़ा। तीसरा सवाल यह कि सरकार कौन चलाता है, प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह या कोई और ? ऐसा तो है नहीं कि सरकार की मर्जी के विपरीत दिनेश त्रिवेदी ने रेल बजट तैयार किया था। ऐसा तो नहीं कि रेल बजट के प्रावधानों से प्रधानमंत्री वाकिफ नहीं थे। हम जापान और चीन की तरह बुलेट ट्रेन में सफर का सपना देख रहे हैं और किराया भी न बढ़े ? रेलवे के पास कारू का खजाना तो नहीं। आने वाले दिनों में सरकार क्या कोई कठोर फैसला कैसे कर सकेगी। जो कठोर फैसले नहीं ले सकता, वह मजबूत कैसे हो सकता है। क्या संप्रग सरकार इस हकीकत को कभी स्वीकारेगी, शायद नहीं। उसके पास दलील जो है-गठबंधन की अपनी कुछ मजबूरियां होती हैं। सरकार की इस दलील में कुछ और जुमले जोड़ने की धृष्टता करता हूं-गठबंधन की अपनी कुछ मजबूरिया होती हैं। यह मजबूरियां, चाहे सरकार को किसी भी हद तक गिरने के लिए मजबूर क्यों न कर दे। ये सियासत है, भइया यहां सब चलता है, यहां सब जायज है।
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