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खबरदार! कोई खुद को ईमानदार समझने की जुर्रत न करे। भले ही मार्च खत्म होते-होते अपकी जेब से नोट उछलकर गच्च से इनकम टैक्स वालों की झोली में चले जाते हों। लेकिन आप कर अपवंचक नहीं हैं, इसका दावा कत्तई न करें। क्योंकि उनकी नजर में पूरा देश हम्माम में एक सूरत खड़ा है। सब संदेह के दायरे में हैं। अमीर-गरीब, व्यापारी-भिखारी। नेता-कर्मचारी। पुलिस-पत्रकार। मुल्ला-पुजारी, डॉक्टर-वकील, मालिक-मजदूर, किसान-जवान सब पर नजर है-‘कहीं यह कालाधन वाला तो नहीं।Ó रोज की जरूरतों में काट-कटौती कर गुल्लक और संदूक में कपड़ों के नीचे छुपाकर माई-बहिनी, मेहरी, भउजाई द्वारा रखे पांच सौ-हजार के नोट तो काले हो ही गए। नोटबंदी के एक महीने गुजर जाने के बाद अब आलम यह है कि पहले दिन-रात पसीना बहाओ तो चंद रुपये कमाओ। मेहनताने का पैसा बैंक गया तो फिर निकालने के लिए धक्के खाओ। इस समय फांका होगा, शायद नोट निकल आएं। यह सोचकर रात में एटीएम निहारो। घंटों पैर पर बल बदल-बदल कर खड़े रहो। अपना नंबर आने से दो आदमी पहले एटीएम खाली हो जाए तो जिंदगी झंड समझकर घर लौट जाओ। अगले दिन नौकरी में गैरहाजिरी लगाकर बैंक जाओ। लाइन में आगे-पीछे धक्का खाओ। गाहेबगाहे लठियाए भी जाओ। सरवा-ससुरा, माई-बहिन सुनो-सुनाओ। धींगामुश्ती झेलो। फिर भी उनको फर्क नहीं पड़ता। उन्हें अपने नायाब फार्मूले पर नाज है कि महमूद-ओ-अयाज का फर्क खत्म कर दिया है। सब को एक सफ में खड़ा कर दिया है। लेकिन उन्हें अपने गिरेबां में झांकना गंवारा नहीं है। वह चुनाव लड़ते हैं। करोड़ों से लेकर अरबों तक खर्च करते हैं। खर्ची रकम को वह पाक-साफ भी करार देते हैं। उस रकम को चंदा में मिला बताते हैं। लेकिन यह नहीं बताते कि जिनसे चंदा लिया, उन्होंने यह रकम कहां से जुटाई थी। पसीना बहाया था या नहीं। टैक्स चुकाया या चुराया था कि नहीं। दलाली खाई-डंडीमारी की थी या नहीं। जमीन में खजाना मिला था या पैसे पेड़ पर उगाए थे। अगर ईमानदारों से ही चंदा लिया था तो कम से कम उनके नाम जगजाहिर करो। उन्हें तो ईमानदारी का सर्टिफिकेट दे दो। लेकिन वो ऐसा नहीं करेंगे, क्योंकि तब पब्लिक खुद नीर-क्षीर का फैसला कर देगी। क्योंकि…ये जो पब्लिक है, ये सब जानती है…। इस सूरत में अब हमें तो एक ही सूरत नजर आती है…हमने मुहब्बत में क्या से क्या बना दिया, बदले में उन्होंने कतार में खड़ा करा-करा कर रुला दिया।
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