एक बहस में चर्चा उभरी कि द्वंद्व से सृजन होता है। सोचा, क्यूं न इस चर्चा को आप सब तक ले चलूं। आपको भी भागीदार बनाऊं। पहले मैं शुरू होता हूं, फिर आप भी अपना नजरिया जाहिर कीजिएगा।द्वंद्व क्या है? मेरी समझ से द्वंद्व उस अवस्था की देन होता है, जिसमें हम सत्य को ग्रहण नहीं कर पाते। यथार्थ को नहीं समझ पाते। पहचान नहीं पाते। द्वंद्व उस अवस्था की देन है, जब हम अपने भूत को लेकर अति व्यथित हो जाते हैं। पश्चताप में डूब जाते हैं और भविष्य को लेकर रेत की इमारतें खड़ी करने लगते हैं। जब हम किसी भी मुद्दे पर अपने अंत: करण की नहीं सुनते हैं। अपनी आंखों पर कई तरह के चश्मे चढ़ाने लगते हैं तो द्वंद्व का शिकार हो जाते हैं। द्वंद्व असंतोष की बुनियाद है। अगर हम अपने आज में जिएं तो कभी द्वंद्व का शिकार नहीं हो सकते। कल हमने गलती की तो कर दी। न बीता कल आने वाला होता है, ना कल की गई गलती को कल ही सुधारने का मौका। फिर गलती या उसके परिणति को लेकर मलाल कैसा कि अरे मैंने गलत कर दिया। अब क्या होगा। जो होना होगा, वह तो होगा ही। लेकिन इस द्वंद्व से उबर कर अगर हम आज कोई गलती नहीं होने देते तो कल किसी द्वंद्व का शिकार नहीं होंगे। कुल मिलाकर अगर हम द्वंद्व के शिकार है तो कहीं न कहीं हम अपरिपक्वता के शिकार हैं। अब द्वंद्व से सृजन की बात। द्वंद्व से सृजन होता है, लेकिन उद्विग्नता का। दोहरे चरित्र। मनुष्य के द्विखंड होने का। दोहरे चरित्र का इसलिए कहा कि एक तो उसका मूल चरित्र है ही, जिसमें बदलाव की गुंजायश कम होती है। दूसरा, वह द्वंद्व के दौरान खुद को जस्टिफाई करने के लिए एक और छद्म चरित्र ओढ़ लेता है। दुनिया में जितने भी धर्म खड़े हुए, सब कहीं न कहीं द्वंद्व के सृजन हैं। सनातन से असंतोष के बाद ईसाईयत, ईसाईयत के बाद इस्लाम। बौद्ध-सिख। सब कहीं न कहीं द्वंद्व के कारण हुए। सनातन धर्मी मानते हैं कि हमारे धर्म की बुनियाद चारों वेद हैं। जो लिखे नहीं गए हैं, अवतरित हैं। इसी तरह ईसाई और मुस्लिम मानते हैं कि उनकी भी चार किताबें हैं। तौरेत, इंजील, बाइबिल और कुरआन। वह भी मानते हैं कि चारों किताबें किसी की लिखी हुई नहीं है। आसमानी है, नाजिल हुई हैं। इन सभी चारों किताबों की बुनियाद में भी सिर्फ एक ही सार है, दूसरे का हित करने जैसा कोई धर्म नहीं है। दूसरे को पीड़ा पहुंचाने से बड़ा कोई अधर्म नहीं है। फिर, जब सब कुछ एक है या एक जैसा है तो मनुष्य क्यों विखंडित हो गया। उसके कारण समाज क्यों विखंडित हो गया। जाहिर है, इस विखंडन के मूल में द्वंद्व ही तो है। दूसरे शब्दों में कहें तो द्वंद्व से जो उपजता है, वह है नया लेबिल। लेकिन लेबिल पीछे और बोतल के अंदर जो होता है, वह पुराना ही होता है। रही बात आंदोलनों की, क्रांति की तो। दुनिया की कोई भी क्रांति खालिस नहीं होती। उसका सार कहीं न कहीं, किसी ना किसी से जुडा होता है। भूख हड़ताल राम वनवास के लिए कैकई ने भी किया था। अब भ्रष्टाचार को हटाने के लिए अन्ना हजारे ने भी। लक्ष्य भले अलग हों, लेकिन दोनों की जद में वजह एक थी अपनी मांग को किसी भी सूरत में मनवाना लेना। कोई जो आपकी फिक्र करता है, उसे बाध्य करना। उसे एक द्वंद्व में उलझाना–मांग मानें तो यह होगा, न मानें तो वह होगा। और इस द्वंद्व का परिणति है विखंडन। यह विखंडन, मानसिक, सामाजिक और वैचारिक भी हो सकता है। इसमें कहीं शक-सुबहा नहीं कि अन्ना के भूख हड़ताल से पूरा देश सहमत नहीं है। हां, एक वर्ग उनके साथ जरूर खड़ा है। मैं इस विवाद में नहीं पडना चाहूंगा कि यह वर्ग बड़ा है या छोटा। लेकिन इसके साथ एक विखंडन का जन्म जरूर हो गया है। अन्ना के आंदोलन ने समाज को दो वर्गों में बांट दिया है। कुछ लोग इस नतीजे पर पहुंचने लगे हैं कि जो अन्ना के साथ हैं, वे पाक-साफ हैं । जो उनके विरोध में हैं वे भ्रष्ट। मानसिक दिवालिएपन का शिकार हैं। यह एक विखंडन हुआ या नहीं ? अब भ्रष्टाचार पर अंकुश की बात। दुनिया की सबसे स्मार्ट पुलिस जहां कहीं भी हो, वहां क्या अपराध नहीं होते। अपराध एक मनोवृति है, जो भय से नहीं जाती। अभाव और भूखे के पेट से, इन दोनों के बीच द्वंद्व से उभरती है यह मनोवृति। पुलिस के डंडों से पिट-पिट कर चोर पत्थर हो जाता है। लेकिन वह चोरी से बाज नहीं आता। आज अन्ना साहेब जन लोकपाल की बात कर रहे हैं, कल उनसे दो हाथ आगे बढ़कर कोई मन्ना साहेब आ जाएंगे। कहेंगे अब जन लोकपाल के ऊपर एक महा जन लोकपाल बैठाओ। क्योंकि जन लोकपाल को लेकर अभी से द्वंद्व का जन्म हो चुका है। द्वंद्व इस बात को लेकर कि क्या गारंटी है, जन लोकपाल सौ फीसद ईमानदार ही होगा। अन्ना साहेब से तो यही अपील है–भूख खत्म कराइए अन्ना जी। भूख खत्म कराने के लिए भूख हड़ताल कीजिए। अपने आप खत्म हो जाएगा भ्रष्टाचार। ((अब आपकी बारी है, फरमाइए—-
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