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राम विलास पासवान की रेल। नीतीश कुमार की रेल। लालू की रेल। ममता दीदी की रेल। रेल तो रेल है। कभी सरपट दौड़ती तो कभी रेंगती। कभी-कभी फेल भी। सरकारें बदलती रहीं और मंत्री भी। हादसे भी होते रहे। कभी छोटे तो कभी बड़े। लेकिन जो अपनी जगह पर रहीं, वह हैं मुसाफिरों की मुसीबतें। ये फिलहाल बदलती भी नहीं दिखतीं। रेल के सफर को हवाई सफर के मुकाबिल बनाने के दावे हवा में ही उड़ते रहे। अभी जून की बात है। शादी और छुट्टियों का सीजन। ट्रेनों में भीड़ बेहिसाब। मेरा दो बार बलिया यानी गांव आना-जाना हुआ। पहली बार नई दिल्ली से पूर्वा एक्सप्रेस पकड़नी थी। बक्सर उतरना था। टिकट जनरल का था। इसलिए टीटी बाबू से मिन्नतें तमाम की। जवाब था-नो रूम है भइया, अलीगढ़ से देखेंगे। लेकिन अलीगढ़ तक इंतजार से बेहतर था जनरल बोगी में बैठना। नहीं तो साढ़े चार सौ रुपये का जुर्माना पक्का। सीट मिलने की कोई गारंटी नहीं। जनरल बोगी की तरफ बढ़ रहा था कि पुलिस वाले की मुसाफिरों से खुसुर फुसुर सुनी। मैं भी जुट गया-दीवान जी,कोई व्यवस्था है क्या। जवाब हां था। पूछ लिया कितना देना होगा। दीवान जी का सवाल था-कहां तक जाना है। मैंने कहा-बक्सर। इधर-उधर देखकर उन्होंने बताया-आठ सौ रुपये। सूखते हलक से मैंने कहा-बहुत ज्यादा है। दीवान जी ने तुनक कर कहा-तब जाओ जनरल में पिसो। स्लीपर में चढ़े तो साढ़े चार सौ रुपये जुर्माना लगेगा। उसके बाद भी सीट नहीं मिलेगी। प्यास तड़का रही थी इसलिए स्टाल पर जाकर पानी की बोतल ली। गटक रहा था तभी दीवान जी ने इशारा कर बुलाया, कितना दोगे। मैंने कहां, पांच सौ। दीवान जी फिर तुनके-सब्जी का मोलभाव कर रहे हो का ? मैं भी सौ रुपये चढ़ गया-चलिए छह सौ ले लिजिएगा। दीवान जी तैयार हो गए। मैं कोच एस-नाइन में सवार हो गया। पत्रकारिता का कीड़ा काट रहा था। सोचा-चलो देख लेते हैं, कैसे बर्थ दिलवाते हैं। मौका मिला तो लिखने का एक अच्छा टॉपिक हो जाएगा। दीवान जी और उनके दो साथी बर्थ दिला गए। बोले-यह सीट हमारी है, एस्कॉर्ट की। हम लोगों का एस्कॉर्ट मुगलसराय तक ही जाता है। उसके बाद जुर्माने का खतरा रहेगा। जनरल बोगी में चले जाना। हम लोग मुगलसराय में आकर जनरल बोगी में बैठा देंगे, एक ही घंटे का तो सफर रहेगा। दीवान जी ने मुगलसराय में अपना वादा निभाया भी। कुछ यात्रियों को हड़काया, मुझे जनरल बोगी में बैठने का इंतजाम कर दिया। पूरब की ट्रेनों में ऐसा हमेशा होता है। रिजर्वेशन वाली बोगी भी जनरल बोगी से बदतर दिख्ाती है। लेकिन सीटें बेचने वाले बेच ही देते हैं। एक बात यह समझ में नहीं आती कि बर्थ न होने के बाद भी तीन-चार सौ तक वेटिंग का टिकट रेलवे जारी क्यों करता है। जबकि रिजर्वेशन वाली बोगी में बिना बर्थ के बैठने पर हालत धोबी के कुत्ते की तरह रहती है।
मुसाफिरों की मुसीबत बयां करता एक और वाकया-इस बार गांव से दिल्ली वापसी थी। ट्रेन पकड़नी थी सुरेमनपुर से। स्लीपर क्लास का टिकट था। लेकिन वेटिंग तीन सौ से ऊपर। ट्रेन थी स्वतंत्रता सेनानी एक्सप्रेस। तिल रखने की जगह नहीं। दो-या तीन मिनट का स्टॉपेज था। आगे-पीछे नजर दौड़ाने के बाद एक बोगी में बमुश्किल बैग फेंक कर खुद को जैसे-तैसे अंदर धकेल पाया। पूरी बोगी पैक। टॉयलेट के बगल में किसी फौजी भाई का बड़ा सा काला ट्रंक रखा था, उस पर बैठे सज्जन को हाथ जोड़कर तशरीफ टिकाने भर की जगह बना ली। यह दीगर बात थी कि मेरे बैठने के कुछ मिनट बाद ही उन सज्जन ने ट्रंक से उतर कर फर्श पर पसरे लोगों के बीच जगह बना ली। किसी पर पैर तो किसी पर हाथ फेंकते हुए फैल कर खर्र-खर्र मारने लगे। करीब 45 मिनट बाद बलिया प्लेटफार्म पर ट्रेन के रुकते ही-रेलमरेल धक्कमपेल। हायतौबा और शोर-अरे, गेटवा पर से हटबअ कि ना, तहार दिमाग खराब बा। फेमली के चढ़े के बाअ। फिर भी गेट जाम। इसके बाद शुरू हुआ एक-दूसरे के माता-पिता को उद्धार करते हुए सदवचनों का दौर। इस बीच किसी बच्चे की चीख गूंजी, पापाआआआआआ। दब गया था बेचारा। लोगों को धकियाती भीड़ के साथ एक देवी जी भी चढ़ने में कामयाब हो गईं। एक हाथ में ब्रीफकेश तो दूसरे में बैग दबाए हुए। हांफती-गिरती बोलीं-बजर परो अइसन रिजर्वेशन के। लड़ पड़ी अपने पतिदेव से-कहअ रहे थे, एसी में रिजर्वेशन करवाओ। अपने आगे किसी की सुनते हैं आप। निरीह पतिदेव फूलते दम के साथ चेहरे पर 12 बजाए खड़े खामोशी से सुने जा रहे थे। तभी मेरे बगल में बैठे एक साधु महराज ने देवीजी से कहा-बेटी कपड़ा संभालो अपना। चढ़ने की धक्कामुक्की में भद्र महिला यह भूल गई थीं कि साड़ी काफी हद तक उनका साथ छोड़ चुकी थी। क्या यह किसी हादसे से कम था। मेरे ख्याल से-नहीं। रेल के सफर में ऐसे हादसे रोज होते हैं और बीच-बीच में बड़े हादसे भी। ऐसा दस-बीस साल पहले भी होता था। आगे भी होता रहेगा। क्योंकि आमान परिवर्तन, बाहर से चमकती बोगियों और चमकते स्टेशनों से हादसे नहीं थमते। मुसीबतें भी नहीं थमतीं।
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