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ये भावना भी न!!

सर-ए-राह
सर-ए-राह
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कौन बनेगा करोड़पति में अगर यह सवाल आए कि अपने देश में सबसे कमजोर क्‍या है ? तो मेरी समझ से माकूल जवाब होगा-भावना। ये भावना भी न! क्‍या बताएं, भगवान ने न जाने क्‍या कोताही कर दी इसे बनाने में। जब देखो, घायल होती रहती है। बहुप्रचारित शब्‍दों में कहे तो आहत होती रहती है। हम सब ने सुना-पढ़ा है कि धर्म मजबूती प्रदान करता है। लेकिन जब भावना धर्म के साथ जुड़ जाती है तो और नाजुक मिजाज हो जाती है। आहत होने की तरंग दैर्ध्‍यता बढ़ जाती है। इन दिनों केंद्रीय ग्राम्‍य विकास मंत्री जयराम रमेश के बयान से भावना आहत हुई है। किसी एक की नहीं, कइयों की। जयराम ने कहीं कह दिया है कि मंदिर से  ज्‍यादा टायलेट जरूरी हैं। और हाय तौबा शुरू। संप्रग सरकार में एक ही तो मंत्री है, जो बेचारा वातानुकूलित चेंबर छोड़कर गांव-गांव घूम रहा है। नक्‍सली खतरों से बेपरवाह होकर कुछ करता नजर आ रहा है। कर भी रहा है। अगर उसने टायलेट को मंदिर से ज्‍यादा जरूरी कह भी दिया तो क्‍या गलत है। हम लोग तो कण कण में भगवान को मान्‍यता प्रदान करते हैं। इस लिहाज से हर जगह मंदिर है। तब साफ-सफाई की बात करने में गुनाह कहां है। कहते हैं मन मेरा मंदिर। सोचिए मन के ऊपर यानी सिर पर मैला ढोने जैसे अभिशाप की वजह क्‍या है, शौचालय का ही तो नहीं होना न। आज भी तमाम लोग यह अभिशाप झेल रहे हैं।
जयराम रमेश का विरोध करने वाले अब  जरा कुछ परिदृश्‍यों पर गौर करें। सुबह-सुबह ट्रेन जब गाजियाबाद, कानपुर, इलाहाबाद, लखनऊ, बनारस, मुजफ्फपुर, हाजीपुर या पटना जैसे शहरों में प्रवेश कर रही होती है, आप ताजी हावा और नजारे के लिए खिड़की की तरफ मुंह करते हैं और अचानक फेर लेते हैं। क्‍यों? इसलिए कि सामने बोतल-लोटा लिए ठुडी पर हाथ रखे बैठे लोग आपको सुप्रभात कह रहे होते हैं। कुछ अन्‍य पहलू। जैसे-तैसे काबू में आया पोलियो का वायरस सबसे ज्‍यादा खुले में शौच से फैला था। आए दिन खबर छपती है–खेत में  सामूहिक बलात्‍कार, शौच करने गई थी।  देश के तामाम ऐसे गांव हैं, जहां शौचालय के अभाव में ही सुबह-सुबह लोगों को सुअर दर्शन करने पड़ते हैं। रास्‍ते से गुजरते वक्‍त लोग नाक पर रुमाल रखकर सरवा-ससुरा करते और कोसते हैं। सबसे बड़ी बात, जिन्‍होंने जयराम रमेश से बयान वापस लेने और माफी मांगने की मांग की है या फिर आंदोलन में अपनी दुकानें बंद रखी हैं, उनमें कितनों के घर शौचालय नहीं है और मंदिर है? ऐसे लोग मंदिरों से ज्‍यादा बढि़या टाइल्‍स अपने टायलेट में लगवाते हैं। दरअसल ये विरोध सिर्फ इसलिए है कि चाहे कुछ भी हो विरोध करना है। क्‍योंकि हमारे पास विरोध के मुद्दे गौण हैं। जो कुछ भी सामने आता है, लपक लेते हैं। शुरू हो जाता है विरोध-विरोध-विरोध। नहीं तो हम निजी जिंदगी में रोज ईश्‍वर को कोसते हैं। जब बारिश्‍ा नहीं होती है। जब  ज्‍यादा बारिश हो जाती हैं। जब लू जलाती है या सर्दी कंपाती है। जब हम कुछ गवां देते हैं, हमारे साथ कुछ बुरा हो जाता है तो हम मंदिर में रहने वाले भगवान को कोसने में भी कोई कोताही  नहीं बरतते। अंतर सिर्फ इतना होता है कि उस समय हमारे सामने मीडिया का भोंपू-कैमरा या कलम-नोट पैड लेकर कोई  खड़ा नहीं होता।
भाई जयराम  रमेश, आप अपना काम करो। भावना अब आहत होने के एडिक्‍शन का शिकार हो गई है। इसे आहत होते रहने दीजिए। जिनको  शौचालय की जरूरत है, वे आपकी बात से जरूर सहमत होंगे। सौ नहीं, दो सौ फीसद सहमत होंगे।

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