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लोकसभा में पास हो गया लोकपाल। पता नहीं, खुद कमजोर है या मजबूत। लेकिन सियासी दलों के मजबूत या कमजोर होने का पैमाना जरूर बन गया। जदयू के प्रधान शरद यादव ने मंगलवार को लोकपाल पर बहस के दौरान लोकसभा में कहा था-मजबूर कभी मजबूत फैसला नहीं ले सकता। यह बात कुछ घंटों बाद यानी आधी रात को सौ फीसदी सच साबित हुई। लोकपाल को संवैधानिक दर्जा दिए जाने का संविधान संशोधन विधेयक लोकसभा में धड़ाम हो गया। यह किसी और का नहीं, कांग्रेस के सबसे मजबूत स्तंभ राहुल गांधी का सपना था। गेम चेंजिंग आइडिया था। अब सवाल उठता है ऐसा क्यों हुआ ? सीधा सा जवाब है-पक्ष में तो तिहाई बहुमत नहीं मिल पाया। फिर वही सवाल ऐसा क्यों हुआ, जब संप्रग सत्ता में है। यह जवाब भी सीधा सा है-सपा, बसपा और राजद के कारण। यह तीनों दल संविधान संशोधन विधेयक पर मतविभाजन के दौरान लोकसभा से बहिर्गमन कर गए थे। ऐसा क्यों हुआ? यह सवाल फिर जिन्न की तरह बोतल से बाहर है। लेकिन इसका जवाब सीधा सा नहीं, बल्कि घनचक्कर वाला है।
सियासी घनचक्कर वाला। कांग्रेसनीत संप्रग सरकार को समर्थन का दम भरते नहीं थकते सपा, बसपा और राजद। फिर मतविभाजन के दौरान दोनों लोकसभा से बाहर क्यों रहे। संविधान संशोधन के लिए मतविभाजन जरूरी होता है और आंकड़ा सरकार के पास नहीं था। क्या यह कांग्रेस नहीं जानती थी। जानती थी, तभी तो कांग्रेस के संकटमोचक प्रणब मुखर्जी का संशोधन विधेयक गिरने के तत्काल बाद कहना था-हमारे पास सामान्य बहुमत है, दो तिहाई नहीं। सरकार के लिए सामान्य बहुमत की जरूरत होती है। जाहिर है, हस्र से सब वाकिफ थे। फिर भी संविधान संशोधन विधेयक लाया गया। या तो प्रणब, चिदंबरम, कपिल सिब्बल और सलमान खुर्शीद जैसे विशेषज्ञों की गिनती कमजोर है। या फिर नतीजा जानते-बुझते हुए ऐसा किया गया। हो सकता है कि सपा और बसपा के प्रति आत्मविश्वास भी एक कारण रहा हो। लेकिन यह बात आम आदमी के गले उतरने वाली नहीं। क्या इस पर स्टैंडिंग कमेटी में सपा और बसपा से चर्चा नहीं हुई, विचार-विमर्श नहीं हुआ। इसका एक पहलू यह भी हो सकता है कि संप्रग और सपा-बसपा की सोची-समझी रणनीति के तहत सब हुआ हो। भाजपा को कठघरे में खड़ा करने के लिए। ताकि सशक्त लोकपाल की वकालत कर रही भाजपा के माथे पर ठीकरा फोड़ा जा सके। अन्ना आंदोलन के कारण जनमानस में लोकपाल को लेकर संप्रग सरकार के खिलाफ बनी हवा को निकाला जा सके। यह दलील दी जा सके कि हमने तो सांविधानिक दर्जा देकर लोकपाल को सशक्त बनाने की पुरजोर कोशिश की। लेकिन भाजपा ने ऐसा होने नहीं दिया। इसकी बानगी लोकसभा में विधेयक गिरने के तत्काल बाद देखने को मिली। जब प्रणब मुखर्जी ने भारतीय लोकतंत्र के लिए सबसे दुर्भाग्यपूर्ण दिन बताते हुए भाजपा को जिम्मेदार ठहराया। कपिल सिब्बल ने कहा कि भाजपा चाहती ही नहीं थी कि लोकपाल बिल पास हो। अगले दिन संप्रग अध्यक्ष सोनिया गांधी का भी कहना था-भाजपा का असली चेहरा कल सामने आ गया। स्थायी समिति में भाजपा ने चर्चा के दौरान वादा किया था कि लोकपाल को संवैधानिक दर्जे का वह समर्थन करेगी। लेकिन दगा किया। यह पार्टी भरोसे के लायक नहीं है। सोनियाजी के कहने का लबोलुआब यह था कि सशक्त लोकपाल के वजूद में न आने के लिए भाजपा जिम्मेदार है। खैर, कारण जो भी रहे हों, संविधान संशोधन विधेयक तो गिर ही गया। एक और सवाल-अब आगे क्या ? कहा तो यही जाता है कि पुत्र पिता के पदचिह्नों पर चलता है। उसके आदर्शों को आगे बढ़ता है। इस विधेयक के साथ ही वही हुआ जो कभी राजीव गांधी के सपने के साथ 22 साल पहले हुआ था। राजीव गांधी ने पंचायती राज संस्थाओं को संवैधानिक दर्जा दिलाने का सपना देखा था। वर्ष 1989 के दौरान इस संबंध में संविधान संशोधन विधेयक राज्यसभा में गिर गया था। प्रधानमंत्री ने नैतिकता की एक नजीर पेश की। विधेयक गिरने के बाद लोकसभा भंग की और चुनाव का सामना किया। यह दीगर बात थी कि चुनाव में हार का सामना करना पड़ा। लेकिन राजीव गांधी का यह सपना पूरा हुआ, वर्ष 1991 में कांग्रेस जब फिर सत्ता में आई, पंचायती राज संस्थाओं को संवैधानिक दर्जा देने का विधेयक पास हुआ। क्या राहुल गांधी अपने पिता राजीव गांधी के आदर्शों को आगे बढ़ाएंगे, उनके जैसा नैतिक साहस दिखाएंगे ? इसका भी सीधा जवाब है-नहीं, नहीं और कतई नहीं। वजह यह कि राहुल में ऐसा नैतिक साहस ही नहीं है और ना कभी होगा।
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