मैं, लेखनी और जिंदगी
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ग़ज़ल(सच्चा झूठा )
क्या सच्चा है क्या है झूठा अंतर करना नामुमकिन है
हमने खुद को पाया है बस खुदगर्जी के घेरे में
एक जमी बक्शी थी कुदरत ने हमको यारो लेकिन
हमने सब कुछ बाट दिया मेरे में और तेरे में
आज नजर आती मायूसी मानाबता के चहेरे पर
अपराधी को सरण मिली है आज पुलिस के डेरे में
बीरो की क़ुरबानी का कुछ भी असर नहीं दीखता है
जिसे देखिये चला रहा है सारे तीर अँधेरे में
जीवन बदला भाषा बदली सब कुछ अपना बदल गया है
अनजानापन लगता है अब खुद के आज बसेरे में
ग़ज़ल :
मदन मोहन सक्सेना
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