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कुदरत

मैं, लेखनी और जिंदगी
मैं, लेखनी और जिंदगी
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कुदरत

क्या सच्चा है क्या है झूठा अंतर करना नामुमकिन है.
हमने खुद को पाया है बस खुदगर्जी के घेरे में ..

एक जमी वख्शी थी कुदरत ने हमको यारों लेकिन
हमने सब कुछ बाट दिया है मेरे में और तेरे में

आज नजर आती मायूसी मानाबता के चेहरे पर
अपराधी को शरण मिली है आज पुलिस के डेरे में

बीरो की क़ुरबानी का कुछ भी असर नहीं दीखता है
जिसे देखिये चला रहा है सारे तीर अँधेरे में

जीवन बदला भाषा बदली सब कुछ अपना बदल गया है
अनजानापन लगता है अब खुद के आज बसेरे में

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