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जिसे देखिये चला रहा है सारे तीर अँधेरे में

मैं, लेखनी और जिंदगी
मैं, लेखनी और जिंदगी
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जिसे देखिये चला रहा है सारे तीर अँधेरे में

क्या सच्चा है क्या है झूठा अंतर करना नामुमकिन है.
हमने खुद को पाया है बस खुदगर्जी के घेरे में

एक जमीं बख्शी थी कुदरत ने हमको यारों लेकिन
हमने सब कुछ बाँट दिया मेरे में और तेरे में

आज नजर आती मायूसी मानबता के चहेरे पर
अपराधी को शरण मिली है आज पुलिस के डेरे में

बीरो की क़ुरबानी का कुछ भी असर नहीं दीखता है
जिसे देखिये चला रहा है सारे तीर अँधेरे में

जीवन बदला ,भाषा बदली, सब कुछ अपना बदल गया है
क्यों अनजानापन लगता है अब, खुद के आज बसेरे में

प्रस्तुति:
मदन मोहन सक्सेना

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