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ग़ज़ल ( शायद दर्द से अपने रिश्ते पुराने लगते हैं)

मैं, लेखनी और जिंदगी
मैं, लेखनी और जिंदगी
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वो हर बात को मेरी क्यों दबाने लगते हैं
जब हक़ीकत हम उनको समझाने लगते हैं

जिस गलती पर हमको वो समझाने लगते है
उस गलती को फिर क्यों दोहराने लगते हैं

दर्द आज खिंच कर मेरे पास आने लगते हैं
शायद दर्द से अपने रिश्ते पुराने लगते हैं

क्यों मुहब्बत के गज़ब अब फ़साने लगते हैं
आज जरुरत पर रिश्तें लोग बनाने लागतें हैं

दोस्त अपने आज सब क्यों बेगाने लगते हैं
मदन दुश्मन आज सारे जाने पहचाने लगते हैं

ग़ज़ल ( शायद दर्द से अपने रिश्ते पुराने लगते हैं)
मदन मोहन सक्सेना

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