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पूरा देश कतार में है। 10 दिन बीत गये, फिर भी बैंकों में जमा अपने ही रुपये को निकालने में लोगों की सांसें फूल रही हैं। एक आंकड़े के अनुसार देश के 85 लोगों ने बैंकों के 87 हजार करोड़ रुपये हड़प रखे हैं। अचरज की बात यह कि इन डिफॉल्टर्स की सूची सार्वजनिक करने में भी सरकार के हाथ-पांव फूलते हैं। कार्रवाई की बात दूर है। विजय माल्या व ललित मोदी जैसे लोग आराम से अरबों पचाकर सात समंदर पार से कुटिल मुस्कान बिखेर रहे हैं। प्रधानमंत्री ने आठ नवंबर को 500-1000 के पुराने नोटों को महज कागज का टुकड़ा बनाने का जो साहस दिखाया, वह ऐतिहासिक था लेकिन दुर्भाग्य कि साथ में कोई बैकअप प्लान नहीं था। परिणाम हुआ कि पूरे देश में आर्थिक आपातकाल जैसे हालात हो गये हैं। लोग अपने ही बैंक खाते से रुपये निकालने को दिन-दिन, रात-रात भर एटीएम के बाहर खड़े हैं। बैंकों में रेलमपेल है। हम अपने पैसे को कब, क्यों और कितना निकालें, यह सरकार निर्देशित कर रही है। यही तो आर्थिक आपातकाल है। जनता के पैसे पर सरकार लगभग कब्जा करने के अंदाज में आये दिन दिशा-निर्देश जारी कर रही है। हमारा संविधान जनकल्याणकारी भाव को समाहित किये हुए है। नोटबंदी के बाद से बैंकों व एटीएम के दर पर ठोकरें खा रहे वंचित व मध्यम वर्गीय लोगों को राष्ट्रप्रेम की घुट्टी पिलायी जा रही है। कहा जा रहा है, 50 दिन इंतजार करो लेकिन हकीकत है कि बैंकों व एटीएम के पुराने चक्र को वापस आने में कम से कम तीन महीने और लगेंगे। तब तक पूरा देश देशसेवा के नाम पर शासनीय अव्यस्था-अराजकता झेलने को अभिशप्त रहेगा। प्रधानमंत्री कह रहे हैं, उन्हें मारने की साजिश हो रही है। शायद यह भावनात्मक ब्लैकमेलिंग से ज्यादा कुछ नहीं है। या यूं कहें पॉलिटकल थियेट्रिक्स। मान लिया, कभी कोई गलती हो गई लेकिन तत्क्षण सुधार तो हो। पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी जो कह रही हैं, वह आम आदमी का दर्द है। इसे गंभीरता से लिया जाना चाहिए। बाजार पैसे की कमी से जूझ रहा है। दुकानदारों की बोहनी हुए कई दिन हो गए। भीख मांगकर गुजारा करने वालों तक पर आफत है। शेयर बाजार ढहा जा रहा है। जिनके पास 2000 के नोट हैं, उसे कोई दुकान वाला लेना नहीं चाहता। सब्जीवाला तो हाथ खड़े कर देता है। कुछ लोगों का काम तो क्रेडिट-डेबिट कार्ड पर चल रहा है लेकिन कितने लोगों के पास ये कार्ड हैं? 125 करोड़ के देश में महज तीन करोड़ कार्ड हैं। सरकार यह समझ नहीं पा रही है या समझना नहीं चाहती है कि बड़ी मछलियां अब भी आराम और सुकून से हैं। ये तो अपना पैसा हिंदुस्तान में रखते ही नहीं हैं। पनामा लीक से भी शासन की आंखें नहीं खुल रही हैं। बैंकों में पूंजी प्रवाह बढ़ाने को या वित्तीय घाटा कम करने को कदम उठाये जाने जरूरी हैं लेकिन सरकार आमलोगों को परेशानी में न डाले। भारत में 30 से 40 फीसद पैसा हमेशा बिना टैक्स वाला ही रहेगा। इसका ख्याल रखा जाना चाहिए कि भारत की 30 फीसद आबादी अपने लिए किसी तरह दो जून की रोटी का जुगाड़ करती है। इन्हें टैक्स नेट में नहीं लाया जा सकता। दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल तो नोटबंदी को छह लाख करोड़ रुपये का महाघोटाला बता चुके हैं। हालांकि यह अतिरेक है लेकिन उन्होंने जो सवाल उठाये हैं, उसका सरकार को जवाब देना ही चाहिए। अब सोने पर सर्जिकल स्ट्राइक की बात हो रही है। सोशल मीडिया पर ऐसे संदेश आम हैं कि सरकार आने वाले दिनों में घर में रखे सोने का भी हिसाब-किताब लेगी। ऐसा हुआ, तब क्या होगा? लगता है, प्रशासनिक तंत्र नकारा हो चुका है। तभी तो जब पूरा तंत्र सेठ-साहूकारों की अघोषित आय का पता लगाने में नाकामयाब रहा तो सरकारी चक्की में घुन के साथ भोलेभाले लोगों को भी पीस दिया गया।
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