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अतिवाद का उभार

Desh-Videsh
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अतिवाद का उभार विश्व की राजनीति में मध्यममार्ग हाशिए पर है। गुट निरपेक्ष तो इतिहास की बात है। अतिवाद का उभार है। वामवाद हो या दक्षिणवाद। दोनों धाराएं चरम पर हैं। भारत भी अछूता नहीं है। हालांकि यहां नोटबंदी के साइड इफेक्ट ने दक्षिणपंथी राष्ट्रवाद के उफान को मद्धम किया है। विश्व पटल पर देखें तो डोनाल्ड ट्रंप, ब्लादिमीर पुतिन, बेंजमिन नेतन्याहू से लेकर रोड्रिगो डुर्टेटो ऐसे नाम हैं जो उन्मादी राष्ट्रवाद के प्रतीक बने हुए हैं। पूरी पश्चिमी दुनिया में दक्षिणपंथी राष्ट्रवाद पोषित हो रहा है। ट्रंप ने ‘अमेरिका फॉर अमेरिकंसÓ का नारा दे रखा है। एक हालिया फिल्म अवार्ड समारोह में मशहूर अभिनेत्री मेरिल स्ट्रीप ने ट्रंप की नीतियों को विभाजनकारी करार दिया। कहा, हॉलीवुड तो बाहरी और विदेशी लोगों से भरा पड़ा है। यदि आप हम सबको बाहर निकाल देते हैं तो आपके पास फुटबॉल और मिक्स्ड मार्शल आर्ट के अलावा कुछ भी देखने को नहीं मिलेगा और ये दोनों ही कला नहीं हैं। यह दक्षिणपंथ का ही असर है कि ब्रिटेन में ब्रिक्सिट के पक्ष में जनमत रहा, जर्मनी में पेगिडा जैसा आंदोलन शक्ति प्राप्त कर गया, फ्रांस में मरीन ली पेन का उभार देखा जा रहा है। ब्रिक्सिट पर जनमत के निर्णय को यूके इंडिपेंडेंस पार्टी (यूकिप) के नेता नाइजेल फैराज ने ‘स्वतंत्रता दिवसÓ के रूप में पेश किया था। यह स्थिति ब्रिटेन में ही नहीं है बल्कि जर्मनी में भी कुछ समय पहले हुए तीन राज्यों के चुनावों भी देखी गई जहां जर्मनी की चांसलर मर्केल की कंजर्वेटिव क्रिश्चियन डेमोक्रेटिक यूनियन तीन राज्यों में से दो में हारी और उग्र दक्षिणपंथी विचारों वाली पार्टी एएफडी को भारी जीत मिली। इस पार्टी ने मर्केल की शरणार्थियों के प्रति नरम नीति बरतने के खिलाफ अभियान छेड़ा था। मजबूरन मर्केल को भी जर्मनी में बुर्के पर प्रतिबंध की घोषणा करनी पड़ी है। दूसरी ओर इस्लामिक स्टेट, जैश-ए-मोहम्मद, लश्कर-ए-तैयबा, तालिबान जैसी शक्तियां हैं जिन्होंने पूरी दुनिया को आतंकित कर रखा है। पूरा मध्य एशिया अशांत है। सीरिया के अलेप्पो में ही अब तक ढाई लाख से अधिक लोग मारे जा चुके हैं। इराक के मोसुल में संघर्ष जारी है। इस्लामिक स्टेट के लड़ाके विरोधियों को यातना देती ऐसी तस्वीरें जारी करते हैं जिन्हें देख रूह कांप जाती है। भारत में दीपावली के समय ऐसा चीन विरोधी माहौल निर्मित किया गया, मानों चीन के साथ जंग होने ही वाला है। जब भारत 1994 में विश्व व्यापार संगठन के समझौते पर हस्ताक्षर कर रहा था, उस समय स्वेदशी के स्वनामधन्य गायब थे। हकीकत तो यह है कि स्वतंत्र व्यापार के इस दौर में वस्तुओं, पूंजी व सेवाओं के स्वतंत्र प्रवाह पर रोक नहीं लगायी जा सकती। मतलब साफ है, पूरी वैश्विक राजनीति पर उन्माद हावी होता जा रहा है। नहीं भूलना चाहिए कि हिटलर व मुसोलिनी भी राष्ट्रवाद के पर्याय थे।

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