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निखरते भारत के दावे पर विश्व बैंक का बड़ा सवाल जब दुनिया के तमाम देश मंदी के शिकार हैं, भारत की अर्थव्यवस्था तेजी से बढ़ रही है लेकिन यह भी खुरदरा यर्थाथ है कि इसी देश में सर्वाधिक संख्या में गरीब रहते हैं। विश्व बैंक की हालिया रिपोर्ट ने शायद जमीनी सच्चाई को बयां किया है। रिपोर्ट के अनुसार देश की 30 फीसद आबादी गरीबी रेखा से नीचे जीवन बसर कर रही है। अर्थात इस जनश्रेणी को प्रतिदिन गरीबी मापने के अंतरराष्ट्रीय मानक 1.90 अमेरिकी डॉलर भी नसीब नहीं है। हमारे लिए यह शर्मनाक है कि नाइजीरिया भी हमसे बेहतर स्थिति में है। भारत में नाइजीरिया से ढाई गुना ज्यादा वंचित व अभावग्रस्त हैं। यह आंकड़ा हमारे विकास मॉडल को सवालों के घेरे में खड़ा करता है। विकास किसके लिए और किस रूप में? जनसरोकारी या पूंजी सापेक्ष? अमत्र्य सेन जैसे बड़े अर्थशास्त्री जब अर्थदर्शन की लोकपक्षधरता पर जोर देते हैं तो क्या वह गलत हैं? ऐसा तो नहीं हम महज आंकड़ों के महाजाल में उलझे हुए हैं और मानवीय स्वरूप गौण हो चुका है? हमारे लिए अर्थव्यस्था गणितीय व्यवस्था ज्यादा हो गई है? विश्व बैंक की रिपोर्ट के संदर्भ में हम आत्मचिंतन कर सकते हैं। अमत्र्य सेन छठे दशक से अर्थशास्त्र के क्षेत्र में कार्य कर रहे हैं। जिस कल्याणकारी अर्थशास्त्र के लिए उन्हें नोबेल पुरस्कार से सम्मानित किया गया, उसका खुलासा उन्होंने अपनी पुस्तक ‘सामूहिक विकल्प और सामाजिक कल्याणÓ में 1970 में ही कर दिया था मगर तब भूमंलडीकरण का नया जोश था। पूंजीवाद के इशारे पर नाचते देश किसी की सुनने को तैयार न थे। भूमंडलीकरण के नाम पर आपाधापी में की गई कोशिशें के नाम पर पूंजीवाद ही थोपा गया। पूंजीवाद के फलस्वरूप विकासशील देशों में भी अमीरों की संख्या तेजी से बढ़ी है। भारत जैसे देश में, जहां तीन-चौथाई आबादी सरकार की ओर उम्मीद-भरी नजरों से देख रही हो, मुक्त-अर्थव्यवस्था के नाम पर छद्म पूंजीवाद थोपने या दूसरे देशों का अंधानुकरण करने की अपेक्षा अमत्र्य सेन के विचारों से प्रेरणा लेना बहुत आवश्यक है। अमत्र्य के विचारों में जनाकांक्षाओं की प्रतिध्वनि है। वे अर्थव्यवस्था के विकेंद्रीकरण के प्रबल पक्षधर हैं। फिलहाल पूरे देश में कल-कारखाने लगाने की आंधी सी चल पड़ी है। किसी भी कीमत पर जमीन हथियायी जा रही है। अचरज की बात यह कि यह सब सरकार कर रही है। झारखंड में जल, जंगल, जमीन हाशिए पर है। बड़कागांव में आधा दर्जन के करीब विस्थापित मौत की नींद सुला दिए गए। तर्क यह कि कारखाने लगेंगे तो रोजगार के अवसर पैदा होंगे? सवाल उठता है कि कारखाने लग भी गए, विस्थापित को नौकरी मिल भी गई तो उसकी दूसरी, तीसरी और उसके बाद की पीढ़ी कहां जाएगी? विस्थापितों की आनेवाली पीढिय़ों के लिए रोटी, कपड़ा, मकान के इंतजाम की क्या गारंटी है? भारत कृषि आधारित देश रहा है। दुर्भाग्य कि अब सरकार किसानों की आबादी को दिहाड़ी मजदूर बनाने पर आमादा है, व्यग्र-बेसब्र है। कल्याणकारी राज्य की अवधारणा धूल-धूसरित हो रही है। हम पूंजीवाद के प्रवाह में अपने देश की विशिष्टताओं को विस्मृत कर चुके हैं। भारत आर्थिक महाशक्ति बने, यह हर भारतीय की ख्वाहिश है लेकिन ध्यान रहे, अरबपतियों की बढ़ती कतार में समाज की अंतिम कतार में खड़े लोग कहीं पीछे न छूट जायें।
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