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एबी बद्र्धन धाकड़ कामरेड हैं। उनको कौन नहीं जानता? मैं उनको सुन रहा था। आप भी सुनिए। जनाब, खुले मंच से अपना ज्ञान (अनुभव) शेयर कर रहे हैं-लालू प्रसाद (राजद सुप्रीमो) दगाबाज हैं। हमने उनको कुर्सी पर बिठाने में मदद की। उन्होंने अपनी ताकत, हमारी ताकत को खत्म में लगाई।
अब यह तो बद्र्धन साहब ही बताएंगे कि उनका यह ज्ञान कितना लेटेस्ट है? अगर यह पुराना है, तो सबके सामने आने में इतनी देर कैसे हुई? मेरी राय में यह वामपंथ का ज्ञान है। अबकी वामपंथी कुछ सीखेंगे? या फिर अस्सी फीसद लोगों की जुबान व उनके बुनियादी मसलों के वाहक की दावेदारी लिए कामरेड अपने-अपने लाल झंडों के साथ गांव-सड़कों पर अकेले-अकेले बस घूमते रहेंगे या अपने घोषित लक्ष्यों की पूर्ति लायक चुनावी हैसियत पाएंगे? बद्र्धन साहब का यह ज्ञान अपने भीतर यह ज्ञान छुपाए है कि क्यों कामरेडों की संसदीय ताकत सिमटती चली गई? कामरेड क्यों और कैसे सत्ताधारी दल की पालकी ढोने के आरोपी बने? यह ज्ञान कई मायनों में गवाही है-कामरेडोंके बिखराव, लंगड़ीमारी और पिछलग्गूपन की।
इस बार कुछ बदलना है? अभी तक जो सीन सामने है और जिस अंदाज में चारों तरफ धर्मनिरपेक्ष गुंजाइश देखी जा रही है …, मुझे तो वाम महासंघ हवा में ही दिखता है। अभी भाकपा ने जदयू से निकटता की सोची, तो भाकपा माले (लिबरेशन) ने आंख तरेर दी। अपनी एकला चलो की घोषित लाइन की बाकायदा मुनादी कर दी। कामरेड, तीसरा मोर्चा को भी देख रहे है। यह समय को लेकर चक्कर में फंसा है। उनकी तरफ से यह तय नहीं हो रहा है कि यह चुनाव के पहले हो या बाद में। वाम विकल्प की भी बात है, जिसकी मंजिल वाम महासंघ है। लाल झंडा एक होगा? कितनी दूर साथ चलेगा? अब तक अनुभव तो बड़ा कड़वा है।
मैं समझता हूं यह सब कामरेडों की बड़ी पुरानी आदत है। उनका चुनावी सफर पूरी कहानी कह देता है। उन सभी प्रश्नों के सार्थक उत्तर मिल जाते हैं कि क्यों वामपंथी पार्टियां अपनी लायक चुनावी मुकाम से काफी दूर रह गईं?
मैं देख रहा हूं कि बिखराव के चरम नुकसान के बाद भी कामरेड नहीं चेते हैं। बिहार में उनके फैलाव की पर्याप्त गुंजाइश थी किंतु उनके बाद आकार पाए मध्यमार्गी दल उनसे काफी आगे बढ़ गए। असल में कामरेड अपनी ताकत को लेकर भ्रम में रहते हैं। यही वजह है कि उनकी कारगर गोलबंदी नहीं हो पाती है। समाजवादियों की तरह वामपंथियों की भी पूरी राजनीति भारी बिखराव व अक्सर नई-नई गोलबंदी का पर्याय रहीं हैं। समय के अनुसार उनके तर्क व नारे बदलते रहे।
1964 में भाकपा से टूटकर माकपा बनी। भाकपा, 1967 की बिहार की मिलीजुली सरकार में शामिल हुई। 1969 में उसकी मदद से कांग्रेस की सरकार बनी। यहीं से भाकपा, सत्ताधारी दल की पालकी ढोने वाली पार्टी कहलाई। 1972-77 तक वह कांग्रेसियों के साथ रही। वोटरों ने भी ठीक इसी अंदाज में उसे जवाब दिया। उसकी वोट आधारित हैसियत घटती गई। जीतने वाले उम्मीदवार घटते गए। लोकसभा चुनाव में भाकपा का सबसे शानदार वर्ष 1991 का रहा। इस चुनाव में उसके सभी आठ प्रत्याशी जीते। बाद में भाकपा ने खुद को उत्कट कांग्रेसी विरोधी जमात में शामिल किया। 1989 में तो राष्टï्रीय मोर्चा-वाम मोर्चा गठित हुई। साल भर बाद उसने लालू सरकार को बाहर से समर्थन दिया। और आज बद्र्धन साहब कह रहे हैं कि लालू दगाबाज निकले। समर्थन-विरोध के बाकी मौकों पर उनके बहुत मजबूत तर्क रहे होंगे। कामरेड, तर्क में महारथी होते हैं।
खैर, 1972 में भाकपा के 35 विधायक थे। अभी सिर्फ एक हैं। क्यों? कामरेड चुप रह जाते हैं। वे चुप रहने में महारथी हैं। बिहार की चुनावी जमीन पर भाकपा का खासा दखल रहा है। 1984 से 1995 तक के विधानसभा चुनावों में उसके विधायकों की संख्या दहाईं अंकों में थी। अब, इस सुनहरी स्थिति के लिए कोई कोशिश है? यह लायक है? असरदार है?
माकपा का तो एक भी विधायक नहीं हैं। उसके किसी भी कामरेड से पूछ लीजिए, लगेगा कि भाई जी तो अकेले व्यवस्था बदल देने का माद्दा रखते हैं। उसकी सेहत भी चौपट होती गई है। 1964 में गठित माकपा ने 1967 से यहां विधानसभा चुनाव लडऩा शुरू किया। हालत बिगड़ती ही गई। बीच के वर्षों में भाकपा माले (लिबरेशन) ने वामपंथी पहचान कायम की। अपना जमाना बनाने में कामयाब हुई। वाम महासंघ को कोने में रखने में लिबरेशन भी जब-तब बदनाम होती है।
ऐसे में आरएसपी, फारवर्ड ब्लाक, रिवोल्यूशनरी सोशलिस्ट पार्टी, माक्र्ससिस्ट कम्युनिस्ट पार्टी आफ इंडिया (एस.), रिपब्लिकन पार्टी आफ इंडिया, माक्र्ससिस्ट को-आर्डिनेशन, सोशलिस्ट यूनिटी सेंटर आफ इंडिया …, बस बैलेट पेपर को लम्बा करने में अपना योगदान करती हैं। ऐसा क्यों है? यह तो कामरेड ही बताएंगे। जनता इस पर उनके ज्ञान का तगादा करती है।
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