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टूट गया आदमी का सांचा?

फंटूश
फंटूश
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उस दिन मुख्यमंत्री नीतीश कुमार को सुन रहा था। वे वासुदेव बाबू (वासुदेव प्रसाद सिंह, माकपा विधान पार्षद) को श्रद्धांजलि दे रहे थे-मुझे नहीं लगता है कि अब ऐसा आदमी पैदा होगा।

तो क्या भगवान ने वासुदेव बाबू बनाना छोड़ दिया है? वह सांचा टूट गया है, जो वासुदेव बाबू जैसे आदमी को आकार देता है? या आदमी, पैदा तो आदमी होता है, बाद में वह खुद को आदमी के रूप में मेनटेन नहीं रख पाता है? ऐसे ढेर सारे सवाल हैं। कौन जिम्मेदार है-आदमी है? समाज है? माहौल है? कौन दोषी है? वासुदेव बाबू इसी युग में थे। आखिर वे वासुदेव बाबू कैसे हो गए? अपना महान भारत नेताओं का लोड नहीं ले पा रहा है। यहां वासुदेव बाबू राजनीति का संत कैसे हो गए? कोई उनके जैसा नाम, उनकी जैसी हैसियत क्यों नहीं चाहता है? कोई बताएगा? वासुदेव बाबू खांटी आदमी के प्रतीक थे, प्रतिनिधि थे। आदमी के तमाम प्राकृतिक गुण से परिपूर्ण। अब मान लिया जाए कि आदमी, आदमी नहीं रहना चाहता है?

उपमुख्यमंत्री सुशील कुमार मोदी अक्सर कहते रहते हैं कि लोकनायक जयप्रकाश नारायण को याद रखना बड़ा टफ टास्क है। क्यों? इसमें क्या दिक्कत है?

मैं देख रहा हूं-वाकई, हम इनको याद भी नहीं रख पा रहे हैं। चौबीस घंटा पहले मो.युनूस की जयंती मनाई गई। वे बिहार प्रांत के पहले प्रधानमंत्री थे। इनको याद करने का सीन देखिए। मंच पर बमुश्किल छह-सात लोग। कमोबेश इतने ही मंच से नीचे। कुछ फूलमालाएं, युनूस साहब की एक फ्रेम्ड तस्वीर और दो-चार नेताओं के प्रणाम की मुद्रा में जुड़े हाथ। बस हो गई याद। मिल गया भावी पीढ़ी को सार्थक संदेश।

इधर, एक दिलचस्प जानकारी आई है। सुनिए, देखिए। आदमी से जुड़ा सबकुछ जान जाएंगे। सर्किल में लोग इनको बाबा भी कहते हैं। आप्त सचिव हैं। हैसियत वाली जगह पर हैं। कुछ दिन पहले उनका एक जूता नहीं पहनने लायक रहा। फट गया। सिलने को दिया। सिलने वाले ने दो दिन का समय लिया। इस दौरान बेचारा अतिक्रमण हटाओ अभियान की चपेट में आ गया। बाबा जूता लेने पहुंचे, तो जूता सिलने वाला गायब। बाबा बहुत परेशान हैं। घर में एक जूता रखकर क्या करेंगे? उनको अपने जूते का अफसोस है। जूता के लिए बजट बना रहे हैं। ऐसा तब है, जबकि उनके नीचे के लोग बहुत कुछ के मालिक हैं। बाबा, अक्सर स्कूटर पर निकल जाते हैं। उनके साथी उनको चिढ़ाते हैं। घर में भी …! इस दास्तान का हर स्तर इस बात की गवाही है कि कैसे ईमानदारी, जिंदगी को लड़ रही है? और क्यों मुख्यमंत्री ने अब वासुदेव बाबू के धरती पर नहीं आने की मुनादी की है?

मैं समझता हूं कि खासकर राजनीति में वासुदेव बाबू वाली शून्यता की एक बड़ी वजह राजनीति का निहायत औपचारिक और प्रतीकात्मक होना है। इसलिए भी बहुत कुछ बदल नहीं पा रहा है। राजनीति, एक फैन्सी/फ्रेंडली मैच सी मनलगी हो चली है, जिसमें मालिक जनता ने अपने जिम्मे बस तालियां पीटने व जयकारा करने का काम रखा हुआ है। भई, मैं तो बहुत कुछ समझ नहीं पा रहा हूं। आप समझते हैं? बिहार बंद जैसा कोई भी आयोजन देख लीजिए, सबकुछ जाहिर हो जाता है। नेता, शासन पर दबाव बना अपने बाथरूम में ढाई-तीन लाख खर्च कराता है और सदन में इस लाइन पर जोरदार भाषण देता है कि 1300 रुपये में कहीं शौचालय बनता है अध्यक्ष महोदय! बेशक, वासुदेव बाबू ऐसे नहीं थे।

मैं समझता हूं कि सबकुछ औपचारिक हो चला है। राजनीति तो औपचारिकता का दूसरा नाम है। नेता, दल में रहने-इसे बदलते रहने की औपचारिकता निभाता है। तरह-तरह की औपचारिकता है। चि_ïी लिखने की औपचारिकता, विरोध-समर्थन की औपचारिकता, वायदा की औपचारिकता, भाषण देने- एलान करने की औपचारिकता, सदन की कार्यवाही की औपचारिकता, सवाल की औपचारिकता, जवाब की औपचारिकता, आंदोलन की औपचारिकता, जनता के पैसे से मलाई चाभते हुए हवाईजहाज के दर्जे (एक्जीक्यूटिव क्लास- इकोनामी क्लास) पर राष्टï्रीय बहस कराने की औपचारिकता …, मेरी राय में मुख्यमंत्री सही हैं; वासुदेव बाबू ऐसे नहीं थे।

अब राजनीति मूल्यों के लिए होती है। मूल्य, लोकल बैंक से लेकर स्विस बैंक तक विस्तारित हैं। नेता, जेल से हाथी पर बैठकर लौटता है। पवन बंसल का भांजा पकड़ा गया। कांग्रेस ने फौरन बंसल को क्लिनचिट दे दी। सीबीआइ को जांच की लाइन मिल गई है। शरद यादव ने फाड़कर रख दिया। उनकी इन बातों कोई भी सहमत हो जाएगा जी कि भांजा, घूस लिया तो इसमें मामा कैसे दोषी है? वासुदेव बाबू ऐसा नहीं बोलते थे। आखिर, जा कहां रहे हैं हम?

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