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नेता और तोता

फंटूश
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राजद सुप्रीमो लालू प्रसाद ने भाजपा के राष्टï्रीय अध्यक्ष राजनाथ सिंह को आरएसएस का तोता कहा है। भाजपा के राष्टï्रीय प्रवक्ता शाहनवाज हुसैन ने लालू को कांग्रेस का तोता बताया है। लालू की बेटी व राजद नेत्री डा.मीसा भारती ने शाहनवाज से पूछा है कि वे किसके तोता हैं-नरेंद्र मोदी के या राजनाथ सिंह के?

चलिए, कौन, किसका तोता है-यह शोध का विषय हो सकता है। लेकिन नेताओं ने यह जरूर बता दिया है कि नेता, तोता होता है। मैं तो मानता हूं कि नेता, सबसे बड़ा तोता होता है। अपने देश भर के नेताओं को देख लीजिए। पता लगाना मुश्किल है कि रटने या रटते रहने वाली विद्या या गुण नेता ने तोता से सीखा या तोता ने नेता से? मेरी राय में तोता अपनी प्रासंगिकता खोते जा रहे हैं। वे हर घर में अब शायद ही मिलते हैं। पहले थे। अब उनकी जगह बड़ी तेजी से नेता ले रहे हैं। हर घर में नेता है। जहां नहीं है, बन रहा है। जो आदमी नेता बन चुके हैं, वे लगातार व खूब रट रहे हैं। मैं समझता हूं कि रटते रहने के मामले में तोता की जरूरत नहीं रह गई है। बहुत जल्द यह नया शाब्दिक विशेषण सामने होगा-नेता रटंत। यह तोता रटंत की जगह लेगा।

मैं सुन रहा हूं कि अपने देश में बहुत दिन से एक ही तरह की बात रटी जा रही है। अपने नेताओं ने रटने का नया रिकॉर्ड बनाकर रटने के मामले में तोता के एकाधिकार को समाप्त कर दिया है। अब रटने पर नेता का कॉपीराइट है। तोता का नहीं।

मैं नहीं जानता कि तोता की कितनी उम्र होती है? मगर यह इतनी ज्यादा तो नहीं ही होती है, जितने दिन से अपने नेता गरीबी-बेरोजगारी हटाने की बात रट रहे हैं? यह तो आजादी के बाद से इक्कीसवीं सदी के दौर तक में रटा गया है। मैं देख रहा हूं कि नेता, रटते रहने के लिए गरीबी की बड़ी मजबूत जमीन पर अपने लिए लगातार नए-नए विषय तलाशते रहते हैं। उसको एजेंडा बनाते हैं। फिर इसको रटना शुरू करते हैं। रटते चले जा रहे हैं। पता नहीं कब तक रटेंगे? मैं जानता हूं कि एक तोता इतना नहीं रट सकता है। उसकी इतनी औकात नहीं होती है।

इसी बार के चुनाव में देख लीजिए। क्या, कुछ भी ऐसा रटा जा रहा है, जो पहले के चुनावों में नहीं रटा गया है? महंगाई, भ्रष्टïाचार, खेत को पानी, भूखे को रोटी, नंगे को कपड़ा, गरीब को घर, बीमार को दवाई, निरक्षर को शिक्षा, विकास, खुशहाली, सांप्रदायिकता, धर्मनिरपेक्षता, सुरक्षा, खौफ, आतंकवाद, एकता, अखंडता …, ऐसे कुछ मसले तो पहले चुनाव से रटे जा रहे हैं। कुछ नेता लगातार एक ही बात रट रहे हैं। हां कुछ, पहले कुछ और रटते थे। आजकल कुछ और रट रहे हैं। लेकिन रट रहे हैं। अपना तोता, बेचारा क्या खाकर रटने में नेताओं का मुकाबला करेगा? अहा, रट-रट कर अपने नेताओं ने कितना सुंदर देश बनाया है? देश को कहां से कहां पहुंचा दिया है? नेताओं को अपने रटने से मन नहीं भरा, तो अब पब्लिक को रटा रहे हैं। जाति को रटा रहे हैं। लोग, धर्म भी रट रहे हैं।

मैं कुछ दिन पहले एक खबर पढ़ रहा था। एक तोता ने अपनी मालकिन के हत्यारे को पकड़वा दिया। पुलिस के पास कोई सबूत नहीं था। वह थक चुकी थी। तोता ने रटने की मुद्रा में हत्यारे का नाम बता दिया। इसलिए कि हत्या करने वाला शख्स रोज दिन घर आता था। मालकिन उसको नाम से पुकारती थी। तोता ने नाम रट लिया था। पुलिस के सामने रट दिया। पुलिस ने तहकीकात की। हत्यारे ने अपना जुर्म कबूल लिया। इस प्रसंग का सार यही है कि तोता, जिसका खाता है, उसी का फर्ज निभाता है। नेता ऐसा नहीं करता है। वह किसका खाएगा और किसका रटेगा-कोई नहीं जानता है। रटने की ईमानदारी के मामले में नेता और तोता में बड़ा फर्क है।

तोता मासूम होता है। उतना ही बोलता है, जितना उसे रटाया जाता है। नेता, चालाक होता है। रटने में अपना भी जोड़ लेता है। तोता का रटना, उसकी बातें मिनट या घंटे में नहीं बदलती हैं। नेता की बदलती हैं। नेता, सुबह में कुछ रटता है, दोपहर में कुछ और, और शाम में यह भी कह सकता है कि उसने ऐसा तो कुछ रटा (बोला) ही नहीं था।

छोडि़ए, रटने-रटाने की दास्तान बड़ी लम्बी है। लाउडस्पीकर बुला रहा है। शाम में नेता जी आ रहे हैं। पब्लिक से कहा गया है कि अधिक से अधिक संख्या में उपस्थित होकर उनके भाषण से लाभ उठाएं। मैं, महान भारत की महान अनुशासित जनता के नाते, जिसके जिम्मे बस सुनना ही है, चाहे नेता जी रटें या तोता जी, भाषण से लाभ उठाने चलता हूं। लोकतंत्र के महापर्व में खुशनसीब को ही लाभ उठाने का मौका मिलता है। आप भी चलिए न! अरे, कुछ करना थोड़े है। सुनना ही तो है। सुन लीजिएगा। खा-पीकर, नेताजी को कोस-कासकर सो जाइएगा।

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