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अहसास ए करोड़पति

फंटूश
फंटूश
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मुझे पहली बार करोड़पति होने का अहसास हुआ है। मैं करोड़पति होने की तमाम शारीरिक और मानसिक प्रक्रिया से गुजर रहा हूं। सबकुछ बड़ा मजेदार है। रोम-रोम पुलकित है। लीवर से किडनी, बड़े करीने से टकरा रहा है। अंग-प्रत्यंग का अंदाज बदला हुआ है। नजरों में अकड़ और गुरूर है, जो पत्नी के सामने हमेशा कम्पलेक्स से झुकीं रहती थीं। पत्नी की अदाएं बदल गईं हैं। बेटा चहक रहा है। मैंने मान लिया है कि वाकई, नए भारत का निर्माण हो रहा है। मेरे जैसे आदमी करोड़पति हो रहे हैं।

थैंक्स टू …! मुझे यहां थोड़ा द्वंद्व है। मैं तय नहीं कर पा रहा हूं कि थैंक्स कांग्रेस को दूं या …? दरअसल, अपने महान भारत के एक राज्य की सरकार ने गरीबी की वैसी परिभाषा बनाई है, जो मुझ जैसों को सीधे करोड़पति बनाती है। मैं अभी हिसाब जोड़ रहा हूं। अरबपति भी हो सकता हूं। खैर, यह मेरा हिसाब है। जरा, उस सरकार का हिसाब जानिए। चैनल पर जदयू के वरीय नेता और मंत्री जोर-जोर से बोल रहे हैं। आप भी सुनिए। यह श्याम रजक की आवाज है-हद है। गांव में हर महीने सिर्फ 320 रुपया कमाने वाला गरीब नहीं है? रोज दिन 10 रुपया अस्सी पैसा कमाने वाला अमीर कहलाएगा? शहरी क्षेत्र में प्रति महीने 502 रुपया कमाने वाला अमीर माना जाएगा? जदयू ने इन लाइनों से उन पर (भाजपा) निशाना साधे है, जो हाल तक उनके साथ थे। योजना आयोग ने 29 रुपया रोज कमाने वाले गरीब नहीं माना था। उसने शहरों के लिए अमीरी की सीमा 32 रुपये रोज तय की थी। तब बात इस बहस तक पहुंच गई थी कि एक आदमी का पेट बारह रुपये में भर सकता है। पांच रुपये में भी रोज दिन पेट भरने की बात आई थी। बहरहाल, मुझे गरीबी मिटाने का यह सबसे बेहतरीन तरीका लगा है।

अब मैंने भी मान लिया है कि गरीबी बड़ी लजीज होती है। इसमें  करोड़पति, अरबपति बनाने की ताकत होती है। गरीबी में बड़ी गुंजाइश होती है। बालू से तेल निकालने से भी बड़ी गुंजाइश। एक गरीब, कई-कई अमीरों की बुनियाद होता है। आप अमीर बनना चाहते हैं, तो गरीब के इंदिरा आवास की छत पचा सकते हैं। उसके मनरेगा की मजदूरी लूट सकते हैं। गरीब पुरुष में गर्भाशय बताकर उसका ऑपरेशन तक कर सकते हैं। गरीब के बच्चों के दोपहर की खिचड़ी की दाल चुरा सकते हैं। उसके वृद्धावस्था पेंशन की राशि अपनी जेब में रख सकते हैं। शौचालय, चापानल, अंत्योदय- अन्नपूर्णा, लाल कार्ड-पीला कार्ड-हरा कार्ड …, गरीबी में अमीरी की पर्याप्त गुंजाइश है। गरीबों के लिए सरकारी मेनू देखकर मुंह में पानी आ जाता है।

मैं समझता हूं-गरीबी बड़ी लचीली भी है। इसे अपने हिसाब से, अपनी सुविधा से मोड़ा जा सकता है। आकार -प्रकार दिया जा सकता है। नई परिभाषा की नजर से देखें, तो यहां के भिखमंगे भी बड़े अमीर हैं। चलिए, बहुत हुआ। मैं चला फोब्र्स (पत्रिका) में अपनी रैंकिंग तलाशने।

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