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आह पालिटिक्स : समय और जुबान

फंटूश
फंटूश
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मैं, पहली बार नेता आरके सिंह को सुन रहा था। जनाब पहले अफसर थे। बड़े-बड़े पदों पर रहे। बड़ा नाम कमाए। धाकड़, खुर्राट नौकरशाह। अब भाजपा में हैं। आप भी उनको सुनिए।

सिंह साब ने भ्रष्टाचार पर निशाना लगाया हुआ है। स्टार्ट हैं-भ्रष्टाचार सबसे बड़ा रोग है। इससे केंद्र से लेकर बिहार तक बुरी तरह ग्रसित है। जब देश का प्रधानमंत्री टूजी और कोल ब्लाक आवंटन जैसे मुद्दों पर बचाव की मुद्रा अपना ले, तो इससे बड़ा दुर्भाग्य कुछ नहीं हो सकता है। बिहार में एसडीओ व डीएसपी स्तर के अधिकारी पैसा देकर अपना तबादला कराते हैं। कोई काम बिना पैसे के नहीं हो रहा है। योजनाओं में अधिकारियों के पैसे बंधे हैं। … सूचना के बावजूद नक्सलियों पर कार्रवाई नहीं होती। अगर दूसरे राज्य की पुलिस इन्हें गिरफ्तार करती है, तो इसका विरोध किया जाता है। सिंह साहब, भाजपा में आने की वजह भी बता रहे हैं-भाजपा ही इकलौती पार्टी है, जो आंतरिक सुरक्षा, भ्रष्टाचार और देशहित जैसे मुद्दों पर बेहतर काम कर सकती है।

अब संजय सिंह (प्रदेश प्रवक्ता, जदयू) को सुनिए-नमो (नरेंद्र मोदी) चालीसा का जाप कर रहे आरके सिंह पहले मुख्यमंत्री नीतीश कुमार का गुणगान करते थे। साफ है कि पदलिप्सा में समय के हिसाब से किस तरह उनकी आस्था बदलती रही है? केंद्रीय गृह सचिव रहते बिहार के लिए पांच काम भी नहीं किया। नक्सलियों के खिलाफ कार्रवाई को हेलीकाप्टर नहीं दिया। सीआरपीएफ जवानों को वापस बुला लिया था। जदयू नेता प्रो.रामकिशोर सिंह कह रहे हैं-कल तक  तो आरके सिंह आरएसएस को आतंकियों का समूह कहते थे। आज उसी को देश का रक्षक मान रहे हैं?

ध्यान दीजिए, देश की सबसे पुरानी पार्टी कांग्रेस के प्रदेश मीडिया प्रभारी प्रेमचंद्र मिश्र बोल रहे हैं-आरके सिंह रिटायरमेंट के बाद नए पद की तलाश में कांग्रेस के खिलाफ बोलकर अपनी उपयोगिता सिद्ध करना चाहते हैं। वे केंद्रीय गृह सचिव थे। तब टूजी या कोल ब्लॉक पर क्यों चुप्पी साधे रखी? उनकी ईमानदारी को खुले में आने से कौन रोका था? जिस बिहार सरकार पर उन्होंने भ्रष्टाचार के गंभीर आरोप लगाए हैं, उसमें तो भाजपा भी साढ़े सात वर्ष तक भागीदार रही है; ऐसी भाजपा में वे क्यों शामिल हुए?

संजय सिंह टाइगर (प्रदेश भाजपा प्रवक्ता) जवाब दे रहे हैं, सुनिए-आज नीतीश कुमार मुख्यमंत्री हैं, तो इसमें भाजपा के साथ आरके सिंह का ही योगदान है। आरके की ईमानदारी व कर्तव्यनिष्ठा पर सवाल उठाना जदयू के गले की हड्डी साबित होगा। जीत के पीछे प्रदेश की बेहतरीन सड़कों का बड़ा हाथ रहा और इसके केंद्र में आरके थे।

बड़ा कन्फ्यूजन है भाई! मैं तय नहीं कर पा रहा हूं कि इनमें कौन, कितना सही या गलत है? कोई मेरी मदद करेगा? सभी अपने को सही ठहरा रहे हैं। बहुत मायनों में वे सही हैं भी। फिर गलत क्या है?

आरके सिंह का भ्रष्टाचार का वर्णन बिल्कुल मुनासिब है, तो प्रेमचंद मिश्रा द्वारा उनसे पूछा गया सवाल भी जायज है। ऐसा नहीं है कि जब से भाजपा और जदयू की दोस्ती टूटी, तभी से बिहार में भ्रष्टाचार शुरू हुआ है। यह बिहार या दिल्ली में आरके सिंह के सेवाकाल के दौरान की जुबान को खंगालने का मौका नहीं है। वो तो सत्ता शीर्ष के बड़े खास थे। उस दौरान की सिंह साहब की सत्ता शीर्ष के लिए कही गई बातें, माने गए आदेश, दिए गए सुझाव …, यह सब आखिर क्या है? संजय सिंह के सवालों का भी भाव यही है कि क्या गड़बड़ी, विडंबना या विसंगतियों के खिलाफ आवाज उठाने की बारी रिटायरमेंट के बाद आती है? ईमानदारी दिखाने या सिस्टम पर चोट करने के लिए रिटायर होना जरूरी होता है? ये सवाल गलत हैं? सवाल, संजय- प्रेमचंद्र या प्रो. रामकिशोर से भी पूछे जा सकते हैं। यह कि आज आरके उनको इसलिए न खराब लग रहे हैं, चूंकि उन्होंने जदयू या कांग्रेस या उसकी व्यवस्था पर हमला बोला है? अभी तक तो सबकुछ ठीकठाक था। क्यों था?

मेरी राय में यह सब प्रतीक भर है। ढेर सारे नमूने हैं। इधर, यह समझ बड़ी तेजी से विकसित हुई है कि लगातार सिस्टम में रमे रहो, उसे चौपट करने में भी योगदान दो और इससे अलग होने के बाद उसकी आलोचना करो। खुलासा करो, किताब लिखो, सेमिनार में बोलो, अभियान चलाओ और इन सबके बूते नए सिरे से अपना नाम रोशन करो। आलोचना, बस आलोचना खुद को सही ठहराने की बड़ी सहूलियत वाली चलताऊ किस्म की तकनीक मान ली गई है।

चलिए, अब मैंने भी मान लिया है कि समय सबसे ताकतवर होता है। यह सबकुछ बदल देता है। जुबान, आंख-कान-नाक …, सबकुछ बदल जाता है। आदमी बदल जाता है। रिश्ते बदल जाते हैं। आस्था बदल जाती है। भरोसा बदल जाता है। दावा बदल जाता है। दोस्त और दुश्मन बदल जाते हैं। टारगेट बदल जाता है। नेता में बदलाव की यह प्रक्रिया, आदमी की तुलना में कई गुना अधिक होती है। नेता तो मिनट व घंटा के हिसाब से बदलता है। मैं गलत हूं?

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