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आजकल अपना महान भारत खूब सक्रिय है। बिहार, भारत का बेजोड़ अंग है, इसलिए यह भी चाज्र्ड है। सारधा ग्रुप (चिटफंड कंपनी) के बहाने लगता है, सब मिलकर इस सच्चाई को मार ही देंगे कि लोभी के देश में ठग भूखा नहीं मरता है। ऐसा होगा? सच्चाई, मरती है?
मैं तो यह देख रहा हूं कि लोभी और ठग का सिक्वेंस बदल गया है। यह बताना मुश्किल है कि कौन लोभी है और कौन ठग है? यह भी कि कौन, किसको ठग रहा है? एक नया ज्ञान हुआ है-सिस्टम (व्यवस्था) भी ठगता है।
सारधा ग्रुप ने देश को कानून का राज की चिंता दी है। सुप्रीम कोर्ट, सरकार, सेबी, नेता, पुलिस, पब्लिक … सब चाज्र्ड हैं। सारधा प्रतीक बन गया है। सरकार कह रही है-सेबी का दायरा बढ़ेगा। उसको सारधा की संपत्ति कुर्की, जांच व जब्ती, सूचना जुटाने की शक्ति होगी। सुप्रीम कोर्ट का निर्देश है कि देश में बाजार का दुरुपयोग बर्दाश्त नहीं किया जाएगा। ऐसी व्यवस्था हो, जिससे लगे कि यहां कानून का राज है। मैं, इसी शनिवार को अपने मोदी जी (सुशील कुमार मोदी, उपमुख्यमंत्री) को सुन रहा था-केंद्र सरकार कड़ा कानून बनाए। राज्यों के कानून से सारधा को रोकना संभव नहीं है। यह केंद्र सरकार का दायित्व है। वह इससे पीछे नहीं हट सकती है।
तो क्या छह साल पहले मोदी जी को यह जानकारी नहीं थी या यह उनका अब तक का अनुभव है? अपनी सरकार के आने के कुछ दिन बाद उन्होंने कहा था कि हम बिहार की ऐसी सभी कंपनियों पर कार्रवाई करेंगे; इनके चक्कर में फंसे लोगों का पैसा वापस होगा। क्या हुआ? दो विशेष अदालत बनने की बात थी। बनी? कौन जिम्मेदार है? किसने, किसको, क्या-क्या कहकर फुसलाया है, छुपा है?
सारधा ग्रुप के कारनामे आज फूटे हैं। अपने बिहार में ठगी का यह तरीका बहुत पुराना है। सारधा में रुपये जमा करने वाले तपन कुमार विश्वास ने आत्महत्या कर ली। उन्होंने बड़ी बेटी की शादी के लिए एक-एक पैसा बचाकर जमा किया था। बिहार में ढेर सारे तपन हैं। हमने कुछ दिन पहले इस मसले को मुद्दा बनाया, लोगों से उनके लुटने की जानकारी मांगी, तो हमने बहुत सारे तपन के बारे में जाना। इनको, किसने नहीं ठगा?
मैं देख रहा हूं-कार्रवाई के जिम्मेदार ही कसूरवार हैं। पहले कंपनियों ने पब्लिक को ठगा, फिर सरकार ने पब्लिक को ठगा। राजद शासनकाल में जस्टिस नागेंद्र राय आयोग बना। इसके पास साढ़े चार लाख लुटे-पिटे लोगों के आवेदन आए। इसे यूं ही छोड़ दिया गया। फिर से आवेदन मांगे गए। पटना हाईकोर्ट का निर्देश बेअसर। सीआइडी जांच हवा में। हां, जुबानी दावेदारी में कमी नहीं रही। लूट भारतीय रिजर्व बैंक, कंपनी रजिस्ट्रार, सेबी, सरकार, पुलिस-यानी आदर्श व्यवस्था के तमाम जिम्मेदारों के सामने हुई थी। और अब यही व्यवस्था पब्लिक को नए सिरे से पुचकार रही है। यह क्या है?
बिहार के लोग जान चुके हैं कि उनके रुपये नहीं लौटने वाले। यही वजह है कि जब सरकार ने दोबारा जांच के नाम पर आवेदन मांगे, तो सर्वाधिक बिदक गये। जस्टिस नागेंद्र राय की रिपोर्ट में है-कंपनियां 12762 करोड़ ठगीं और लापता हो गयीं।
इस प्रकरण का एक व्यावहारिक पक्ष यह भी है कि सरकार के जिम्मे एक असंभव सा टास्क है। ज्यादातर कंपनियों के नामोनिशान तक नहीं हैं। कमोवेश तमाम कंपनी संचालक रसूख वाले रहे हैं। पाबंदी के बावजूद ऐसी एक कंपनी का दफ्तर पुलिस के शीर्ष अधिकारी रहे एक शख्स के आवास में चलता रहा। कई कंपनियां दूसरे नामों से आज भी काम कर रहीं हैं। साफ है पहले लूट कराई गई और फिर उनको भागने का मौका दिया गया।
ये लुटे-पिटे लोग इस कहावत को चरितार्थ करते हैं कि लोभी के देश में ठग भूखा नहीं मरता है। लेकिन सिस्टम (व्यवस्था) की भी कोई जिम्मेदारी बनती है। उसने अपनी जिम्मेदारी निभाई है? सबकुछ तो सामने है। अब अपनी बिहार पुलिस छापामारी कर रही है। लोग पकड़े जा रहे हैं। ये कौन लोग हैं? ये तो बेचारे खुद ठगाए हुए हैं। अपने अभियान के दौरान हमने जाना था कि कैसे इन कंपनियों के एजेंट खेत बेचकर भी रुपये चुका रहे हैं? कैसे उनकी रिश्तेदारी बिगड़ गई है? पुलिस कह रही है कि वह लुटे लोगों का पैसा वापस दिलाएगी। अपने उपमुख्यमंत्री कह रहे हैं कि केंद्र को इसको रोकने के लिए सख्त कानून बनाना चाहिए। पब्लिक, किस पर भरोसा करे? क्या माने कि कौन, किसको ठग रहा है?
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