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क्रिकेट भगवान की जय

फंटूश
फंटूश
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समझ में नहीं आ रहा है कहां से शुरू करूं? उस आदरणीय भद्र महिला से, जो अपने ठाकुर जी (आराध्य देव) की मूर्ति को हाथ में लेकर तब तक बैठी रहीं, जब तक धोनी के छक्का ने देश को झुमा नहीं दिया; कि उन खोमचे वाले, सब्जी वाले, फोकचा वाले, चाय वाले, अंडा वाले या बड़े पदों से रिटायर हुए बुजुर्गों की बेजोड़ बहस से जिनके कमेंट्स शायद लाला (अमरनाथ) को भी पीछे छोड़ देते हैं; कि रात की होली-दीवाली से या मंदिर के बगल में लगे प्रोजेक्टर पर दिखे हर उस लम्हे से, जिसे भगवान भी खूब इन्ज्वाय किये होंगे; कि साक्षी के व्रत से या धोनी के भाई, माता-पिता की देवी मां की मन्नत से! ये लाइनें बहुत लंबी खींच सकती हैं। जनाब, मसला सवा अरब का है। ढेर सारे सीन हैं।
मेरा बेटा मेरी मां को क्रिकेट समझा रहा था। बेचारा, चार-पांच घंटों की मशक्कत के बाद भी नाकाम रहा। हां, वह अपनी दादी को भारत की जीत जरूर समझा गया। इसमें पटाखों की गूंज और सड़क के उन्मादी माहौल ने बड़ी मदद की। मां मुस्कुरायी। उसके हाथ प्रणाम की मुद्रा पाये। उसने भी खुद को आराध्य को शुक्रिया अदा करने वाली बेताबी में शामिल कर लिया था।
पहली बार मुझे ऐसा लगा कि क्रिकेट सबसे बड़ा धर्म बनने के रास्ते पर है। अगर इससे उन्माद को किनारे कर दिया जाये, तो यह इक्कीसवीं सदी की दौर में तमाम भारतीयों के दिलों में गहरे उतरने, सबको जोडऩे-जुडऩे का माध्यम हो सकता है। किसी भी मसले पर ऐसी एकता, जोश व जुनून और उसका ऐसा उबाल मैंने नहीं देखा था।
मैं जिस मुहल्ले में रहता हूं, वहां अधिकांश घर उन लोगों के हैं, जिन्होंने कायदे का जीवन जिया है, जो बड़े पदों पर रहे हैं और इस रूप में जो एलिट माने जाते हैं। मगर ये जनाब तो मुहल्ले के सब्जी बाजार में फुटपाथी दुकानदारों से क्रिकेट पर लंबा बतिया रहे थे। प्रोजेक्टर के पास इनकी मौजूदगी भाव-विभोर करने वाली थी। बूढ़े, बच्चे बने थे और बच्चे …! बाप रे बाप पूछिये मत! पूरे दिन कई मर्तबा मेरा बेटा अपनी पत्नी से खूब टकराया। असल में दोनों मैच से जुड़ी खीझ एक-दूसरे पर उतार रहे थे। खीझ इस बात की कि आखिर श्रीलंका अपने स्कोर को इतना लंबा कैसे ले जा रहा है; सहबाग और सचिन विकेट पर क्यों नहीं टिके?
घर, मुहल्ला, शहर बस क्रिकेट को जीता रहा। आपस में कोई परिचय नहीं है, कोई बात नहीं। इंडियन हैं न, जीत को मजे में शेयर कीजिये। अरे, जरा इन लड़कियों को तो देखिये-रात साढ़े ग्यारह बजे फ्रेजर रोड की खुशी में खुद को शरीक की रहीं; स्कूटी से फर्राटा मारती रहींं। रात के खौफ से पूरी तरह किनारा।
खैर, अपनी जीत के बहाने हमने अपने उन तमाम उपायों को एक बार आजमा और पुष्ट कर लिया है, जो असहाय महसूस होने पर हमें भरपूर ताकत देती हैं। सेमीफाइनल के बाद से चौतरफा चादरपोशी, दुआ से लेकर महामृत्युंजय जाप, रूद्राभिषेक, गायत्री मंत्र, पुरुष सूक्त, ज्योतिषशास्त्र, वास्तुशास्त्र का दौर रहा। पूजा-पाठ, चादरपोशी, हवन, अनुष्ठान …, सबने अपने-अपने आराध्य को भारत की जीत की जिम्मेदारी सौंप दी थी। दुआएं कबूल हुईं हैं।
भगवान जी, माफ करेंगे। हम आदमियों के चलते उन्हें थोड़ी परेशानी हुई होगी।
भगवान के सामने नये भगवान दिखे हैं। ये हैं-धोनी, वीरेंद्र सहवाग, सचिन तेंदुलकर …! इनकी तस्वीरों की भी आरती उतारी जा रही है। टीका-चंदन लगाया जा रहा है। कुछ लोग बैट, बाल, विकेट लेकर भगवान के सामने जमे रहे। कुछ लोग फुल ड्रेस में (पैड, ग्लब्स, हेलमेट) हवन करते रहे।
मैच वाली शाम को सब्जी बाजार में था। एक छोटा बच्चा मिर्च, निंबू, धनिया पत्ता बेच रहा है। फोकचा (गोलगप्पा) वाला उससे पूछता है-सुनई थिअऊ की सहवाग आउट हो गलऊ? बच्चे की दुकानदारी सहम जाती है। थोबड़ा लटक जाता है। एक ग्राहक उसे डपटने के अंदाज में सांत्वना देता है-अरे, अभी तेंदुलकर है न रे! मिरचाई तौल।
और यहां तेंदुलकर के आउट होने पर कुछ लोग इस तरह भिड़े हैं कि आपस में ही मार कर लेंगे। बहस इस बात पर हो रही है कि आफ स्टम्प से बाहर निकलती बाल में बैट अड़ाने की उसकी आदत अभी तक क्यों नहीं गयी।
हर बाल पर एक अरमान और उसको अंजाम देने की मनौती। मेरा बेटा भी रोने लगा था। मेरी भी आवाज भर्रा गई थी।
आज सुबह महेंद्र सिंह धोनी का लुक पूरी तरह बदला हुआ देखा। सिर से बाल गायब थे। पता चला कि विश्व कप जीतने के बाद धोनी ने अपने पंडित जी से पूछा था। पंडित जी ने अहले सुबह पौने तीन से तीन बजे के बीच बाल कटाने को कहा था। धोनी ने इसे माना। उनकी मनौती थी।
इस मौके पर मिजाज कुछ-कुछ वीर रस टाइप भी हो रहा है। अब भद्र जन वाले मुल्कों को लग गया होगा कि उनके द्वारा बताया गया जादू-टोना और मदारियों का यह देश भारत अपनी इन्हीं ताकत से क्या कुछ नहीं कर सकता है?
और अंत में …
जीत की खुशी में अकेले मुंबई में लोग एक लाख अस्सी हजार लीटर शराब-बीयर पी गये। जीओ इंडिया। मस्त रहो, बमबम रहो।

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