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जनता जीतेगी?

फंटूश
फंटूश
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वोट मांगने और गिराने का काम खत्म हो गया। बड़ा लम्बा चला। लगा, देश में कोई और काम नहीं है। अपने देश में काम की बड़ी कमी है। चुनाव ही सबसे बड़ा काम है।

खैर, मैं यह नहीं समझ पा रहा हूं कि अब जो चुनाव होंगे, उसमें अपने महान नेता क्या बोलेंगे? क्या करेंगे? अब और कौन-कौन, किस-किस तरह की लीला रचेंगे? कुछ बाकी बचा है क्या? सबकुछ तो खत्म हो गया। यही सीन रिपीट होगा या …? बड़ा द्वंद्व है। कन्फ्यूजन है। कोई मेरी मदद करेगा, प्लीज?

नेताओं ने इस चुनाव में बहुत कुछ सिखाया है। भई, मेरा तो गजब का ज्ञानवद्र्धन हुआ है। मैं समझता हूं यह इतना ज्यादा है कि संसदीय प्रणाली वाले अपने महान भारत के लिए कुछ बचा नहीं है। नेताओं ने दिखा दिया कि वाकई वे नेता हैं। उनके पास जादू की छड़ी है। वे जैसे चाहे पब्लिक को नचा सकते हैं। करीब पांच  महीने के इस महापर्व में यह बात पूरी तरह सामने आ गई कि लोकतंत्र में जनता मालिक नहीं है। कम से कम यह जनता तो नहीं, जो जातीय या कौमी बिसात पर बड़ी सहूलियत से खूब नाच जाती है। जिसके लिए चुनाव से थोड़ा पहले दारू का इंतजाम किया जाता है। जिसको वोट के लिए नोट दिए जाते हैं। जिससे पूछकर कुछ नहीं होता है। न तो दलबदल, न ही उम्मीदवारी। जिसके लिए मुद्दों की अहमियत नहीं है। जो नेताओं की सिर्फ सुनती है। उनकी उस जुबान या शब्दों से चार्ज होती है, जो अमर्यादित है और जो नेता से उसका यह विशेषण छीनने की ताकत रखता है कि नेता, समाज का पथ प्रदर्शक होता है।

इस चुनाव में अपने नेताओं ने समाज को कौन सा रास्ता दिखाया? कोई बताएगा? जो पथ दिखा, वह मुनासिब है? इस पर चलकर किसी सार्थक मुकाम तक पहुंचा जा सकता है? अगर पार्टियों के घोषणापत्र को किनारे कर दिया जाए, तो ऐसा कोई भी मुद्दा दिखा, जिसके बूते सवा अरब का अपना देश अपने बेहतर भविष्य की कामना कर सकता है? चुनाव ने दिखाया कि इक्कीसवीं सदी में भी नेताओं का क्या चरित्र है और जनता कैसी है? कैसे वह आज भी बेजुबान सी है। उसे बूथ तक पहुंचाने के लिए सुरक्षा के बेहद तल्ख इंतजाम करने पड़ते हैं? विकास का पैमाना, सोच या फिर अपेक्षा भी नाली, गली, पानी, वृद्धावस्था पेंशन जैसे निहायत बुनियादी जरूरतों से आगे नहीं बढ़ पाई है। यह साढ़े छह दशक से भी अधिक समय से आजादी पाया भारत है। अहा, हमने कितना सुंदर देश बनाया है? देश को कहां से कहां तक पहुंचा दिया? जनता की इस मनोदशा या हैसियत का भविष्यकाल …?

धर्म आधारित विभाजन तो विसंगति की पराकाष्ठा थी ही, इस चुनाव में समाज जाति की उपजातियों में बंटा दिखा। चुनाव में चारों तरफ जाति बोली। पहले नेताओं ने बोला, फिर जातियों ने। आदमी की पहचान उसकी जाति रही और वोट से जाति पहचानी गई। यादव, कृष्णौठ-मजरौठ की चर्चा पर उतर आए, तो कुर्मी, कोचैसा और धमैला पर। वाह इंडिया, वाह। लगे रहो। आगे के चुनावों में क्या होगा?

मैं, उस दिन सुशील कुमार मोदी को सुन रहा था। आप भी सुनिए-नरेंद्र मोदी घाची हैं। बिहार में यह जाति तेली के बराबर है। बेशक, सुशील मोदी यूं ही यह बात नहीं बोले। चुनाव में नरेंद्र मोदी की जाति एजेंडा बन गई। बननी ही थी। अब इसके लिए कौन, कितना कसूरवार है, इस पर हम लम्बी बहस कर सकते हैं। अपने देश में बहस या बतकही की बड़ी पुरानी आदत है। हम इस पर भी खूब बतिया ले सकते हैं, लाजवाब शोध भी कर सकते हैं कि नम्बर गेम वाली लोकतांत्रिक व्यवस्था में बहुत वर्षों तक पिछड़ी, अति पिछड़ी जातियां, सवर्ण जातियों की ठगी की शिकार रहीं। फिर जब उनमें वोट हमारा राज तुम्हारा नहीं चलेगा-नहीं चलेगा, वाली चेतना आई, तो इसे जातीयता का नंगापन क्यों कहा जा रहा है? इस लाईन के धारक यह भी कहते हैं कि जब आदमी से जाति अलग नहीं हो सकती है, तो फिर चुनाव से उसे अलग कैसे किया जा सकता है? यह इक्कीसवीं सदी को सोच है। जायज है? इस चुनाव ने तो जायज ठहराया है। तभी तो लालू प्रसाद जैसे धुरंधर नेता ने राजपूतों को भी समझाने की कोशिश की कि कैसे भाजपा उनकी दुश्मन है? यह सब विकास के मुद्दे को हतोत्साहित नहीं करता है? आगे क्या होगा?

अबकी चुनाव में पैसा जमकर बोला। हवा बनाने से लेकर हवा बिगाडऩे में खर्च हुआ। आगे? कमजोर जेब वाले चुनावी प्रक्रिया से बाहर हो जाएं या किसी भी सूरत में धनवान बनें? क्या करें? कोई बताएगा?

शब्द मर्यादा खो चुके हैं। तिकड़म चरम पर चढ़ लुढ़क गया। दुष्प्रचार ने सच्चाई को किनारा दिया। लम्बे चुनावी चरणों ने सभी तरह की जुबान आजमा लिए। गलाकाट लड़ाई का नया चरण-मुकदमेबाजी भी आकार पा गया। कभी किसी की पत्नी मुद्दा बनी, तो बाप-बेटा- मां भी। मंच, भाषण, चैनल, अखबार कम पड़ गए। नेताओं ने सोशल मीडिया तक में अपनी बुलंदी दिखा दी। सीधी लाइनों से मन नहीं भरा, तो नेता जी तुकबंदी व कविताएं लिखने लगे। भाजपा के प्रदेश अध्यक्ष मंगल पांडेय ने एक दिन प्रेस कांफ्रेंस में बस अपनी कविता सुनाई। एक दिन कुछ नहीं मिला, तो नेताओं के बंगले पर मार फंसा दी गई। मैं समझता हूं कि अब नेताओं के पास कुछ नहीं बचा है। फिर, वे आगे क्या करेंगे?

मेरी राय में यह सब नेताओं की मजबूरी भी रही। आखिर इतने लम्बे चुनाव में नेता, पब्लिक को चार्ज कैसे रखते? उन्होंने इस चुनाव में जुबानी जंग का वस्तुत: गाली संस्करण लांच किया है। जी हां, भाषा का स्तर जहां तक पहुंच गया, वहां बस गाली बची है। मैं मानता हूं कि अगर अखबारों में गाली छपने लगती, तो नेता जी गालियां भी देने लगते। आगे क्या करेंगे? वे मर्यादा वाले सारे शब्द तो खर्च कर चुके हैं। मैंने भी अब मान लिया कि अपने देश में दूसरों को गालियां देकर अपना काम मजे में चलाया जा सकता है। इसके लिए बराबरी की दरकार नहीं है। कोई किसी को गाली दे सकता है। किसी पार्टी का प्रखंड अध्यक्ष भी प्रधानमंत्री को गाली देने की कूवत रखता है। इस चुनाव में यही हुआ है। अब जो चुनाव होगा, उसमें …? नोटा की परख बाकी है। इसका अगला चरण भी।

मैंने देखा कि वैसे मसले भी मुद्दे बना लिए गए, जिसका बिल्कुल मतलब नहीं था। पुलिस ने राबड़ी देवी की गाड़ी चेक की। मुख्यमंत्री नीतीश कुमार का हेलीकॉप्टर तक चेक हुआ था। लेकिन लालू प्रसाद ने दिखा दिया कि वे नब्बे के अपने दौर को खुद पर ओढ़ रखे हैं। वोट तो इसी अंदाज से मिलता है न? आगे? नीतीश कुमार के अनुसार लालू प्रसाद अपना संस्कार नहीं भूल सकते हैं। इससे अराजकता पैदा होती है, जो शासन व्यवस्था को चौपट करती है।

आखिरी तीन चरणों में यह चालाकी प्रचारित दिखी कि राजद-कांग्रेस और जदयू में भितरिया तालमेल है, जबकि कई क्षेत्रों में इन दोनों की मौजूदगी भाजपा के लिए फायदेमंद है। चुनाव आयोग पर अंगुली उठी। अभी नीतीश सरकार के गिरने पर बात हो रही है। भाजपा ने इसकी दो तारीखें बताई है-सोलह मई या इक्कीस मई। सोलह मई को परिणाम आ जाएंगे। इक्कीस मई तक सरकार बन जाएगी। भाजपा के अनुसार नरेंद्र मोदी प्रधानमंत्री बन रहे हैं। इसके बाद जदयू में भगदड़ मचेगी। उसके विधायक भाजपा में आ जाएंगे। जदयू इसे हताशा की बौखलाहट कहता है। उसके अनुसार भाजपा के पचास विधायक उसके संपर्क में हैं। तय करते रहिए।

चलिए, बड़ी लम्बी दास्तान है। बाकी फिर कभी। मुझे लोकतंत्र की जन्मभूमि वैशाली में  मिले विनोद कुमार ठाकुर की एक बात याद आ रही है। उन्होंने कहा था-हर चुनाव में बस जनता हारती है। जीतता सिर्फ नेता है। ठाकुर जी गलत हैं? हां, चुनाव की खुशनुमा खासियत भी है। चुनावी हिंसा को बहुत बदनाम रहे बिहार में चुनाव शांतिपूर्ण गुजर गया। बड़ी बात है। यह भी कि मतदान का प्रतिशत बढ़ा। पुरुष सतर्क हो जाएं। महिलाओं ने वोटिंग में अपना झंडा गाड़ा है। नीतीश कुमार गलत नहीं कह रहे हैं कि आगे के दिनों में वे अपने लिए वोट मांगेंगी। अपना एजेंडा सेट करेंगी। तभी जाति-धर्म की जकडऩ टूटेगी।

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