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जनता, मालिक है?

फंटूश
फंटूश
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आजकल एक सवाल मुझे बहुत परेशान किए हुए है। जवाब को प्लीज मेरी मदद करेंगे। सवाल है-संसदीय लोकतांत्रिक प्रणाली वाले अपने महान भारत में जनता, वाकई मालिक है?

मेरी राय में ऐसा नहीं है। खासकर उस बिहार में तो बिल्कुल नहीं, जिसने लोकतंत्र की अवधारणा से दुनिया को वाकिफ कराया। बेशक, सरकार जनता के वोट से बनती है। इसीलिए उसे मालिक कहा जाता है। मालिक, उसकी ताकत यहीं तक है। इसके पहले या बाद में जनता की मालिकाना हैसियत और इस लायक उसकी प्रबुद्धता नहीं दिखती है। बेहद अचरज के साथ यह बात खुलेआम कही जा सकती है कि अपने जानलेवा संकटों के लिए मालिक जनता खुद जिम्मेदार है। कैसे? देखिए …!

मैं विक्रम में था। यह पाटलिपुत्र संसदीय क्षेत्र का हिस्सा है। रामपुकार सिंह मिले। जनाब शिक्षक हैं। देश का भविष्य गढऩे के प्राथमिक किरदार हैं। वोट पर बात हो रही थी। सिंह जी उसको वोट देने की बात कह रहे थे, जिस तरह के लोग चुनावी तिकड़म में वोटकटवा कहलाते हैं। मास्टर साहब भी यह बात जानते थे। लेकिन जरा उनको सुनिए -हमने जनेऊ छूकर उनको वोट देने की कसम खायी है। क्या डाक्टर ने कहा है? नहीं, सिंह जी उनको इसलिए वोट देने पर आमादा थे, क्योंकि वह उनकी जाति का है। वे यह भी जानते थे कि उन्हें (नेताजी),  किसने अपने फायदे में मैदान में उतरवाया है? मालिक जनता का यह दिमाग-मिजाज …, नेता तो मस्त ही रहेगा न!

अभी भाजपा के पूर्व राष्टï्रीय अध्यक्ष नितिन गडकरी ने बिहार की जातीयता को नंगे अंदाज में खुलेआम किया, तो वे नेता या उनकी पार्टी भी गडकरी पर फटी, जो जातीय जहर के कसूरवार हैं। गडकरी की यह बात भाजपा का बाकायदा नियोजन हो सकती है लेकिन विरोध करने वाले लोग क्या करते रहे हैं? किस पार्टी ने उम्मीदवारी तय करते वक्त अपने जातीय-सामाजिक आधार से बाहर जाने की हिम्मत दिखाई? मैं समझता था कि 21 वीं सदी की दौर के इस चुनाव में मालिक जनता अपनी मालिकाना हैसियत दिखाएगी, निर्णय देगी। मगर मालिक को उसकी जाति की बिसात पर नचाने में सेवक (नेता) कामयाब हैं। मालिक जाति की चार्जर से बड़ी सहूलियत से चार्ज हो गई। जमीन पर बस जाति है। जहां जाति नहीं चली, वहां कौम या धर्म चला दिया गया। नेता तो निश्चिंत रहेगा ही न!

मैं, दानापुर के सामने वाले दियारा के मानस बाजार में था। चुनावी बतकही के दौरान वहां भीड़ जुट गई। मालिक लोग थे। पहले सबने, सभी पार्टियों के नेताओं की आलोचना की। गाली भी दी। मालिकों की एक ही लाइन-… नेता खाली चुनाव में दिखता है। दियारा, मध्य काल के भी पहले की दौर की खुली गवाही है। जानलेवा माहौल। मालिक कह रहे थे- कोई भी नेता वोट मांगने या लेने का हकदार नहीं है। खैर, नेताओं को खूब गरियाने के कुछ देर बाद मालिक जनता का असली चेहरा दिखा। बात जातीय पगड़ी, इसकी लाज या वोट के समीकरण की निकली, तो वे आपस में ही उलझ गए। दावा-प्रतिदावा। मारपीट की नौबत। जहां जाति के नाम पर मालिक उन सेवकों के लिए मारपीट पर उतर जाएं, जो उनको पूछता भी नहीं है, भला कोई नेता दियारा में धूल फांकने या गंदा पानी पीने क्यों आएगा?

मैं देख रहा हूं-मालिक जनता के पाले से नेताओं के लिए कोई सवाल नहीं है। कहीं- कहीं सड़क नहीं तो वोट नहीं, पुल नहीं तो वोट नहीं के बैनर दिखे, लोग बूथ पर गए भी नहीं लेकिन इसकी मात्रा उतनी नहीं, जो नेताओं को जनता के साथ वास्तव में मालिक जैसा सलूक करने को विवश कर दे। अभी लाउडस्पीकर पर नेताजी के प्रखंड कार्यालय के मैदान में आने की मुनादी होती है। मालिक जनता वहां पहुंचती है। हेलीकॉप्टर से उतरे नेताजी को सुनती है। चुपचाप लौट आती है। फिर चुनाव के दिन अनमने ढंग से सही, वोट दे आती है। वह इस पूरे क्रम में खुद को या अपनी समस्याओं के समाधान के भरोसे को सीधे तौर पर कहीं नहीं पाती है। यह मालिक जनता है। अभी तक वह बस धर्मनिरपेक्षता-सांप्रदायिकता, सबकी कलई या तरह-तरह के मॉडल से वाकिफ हुई है। उसे बड़े आराम से समझा दिया गया है कि अपनी रूटीन या लोकल समस्याओं को छोड़ो, अभी देश को देखना है। मालिक समझ भी गए हैं। बड़े और सक्षम मालिक कुछ दूसरे शब्द व मुद्दों से संतुष्ट किए गए हैं। नेता, आराम की मुद्रा में हैं। अरे, जहां बात से काम चल जाए, वहां काम की क्या जरूरत है?

मैं समझता हूं कि अपने महान लोकतांत्रिक व्यवस्था में सिवाय वोट लेने के, मालिक की भूमिका कहीं नहीं है। उम्मीदवारी तय करने में मालिक की कोई भूमिका है? रहनी चाहिए कि नहीं? किस सेवक ने दल बदलने से पहले मालिक से इजाजत ली? पालाबदल या फिर राजनीति के अपराधीकरण के बुलंदी पर क्या मालिक की सहमति है? बहुत इंतजार व मशक्कत के बाद मालिक जनता को नोटा का ऑप्शन दिया गया है। नोटा, यानी नापसंदगी जताने वाला इलेक्ट्रानिक वोटिंग मशीन का बटन। यह बटन से ज्यादा कुछ है क्या? इसकी ताकत क्या है? यह जनता को मालिक का वास्तविक अहसास करा सकता है? क्या हो जाएगा? यहां तो सत्रह-अठारह प्रतिशत वोट पाकर भी लोग सांसद-विधायक बन जाते हैं। यह नोटा भी तो प्रचारित नहीं हुआ। क्यों होगा? चुनाव आयोग भी तो इसी मस्त-मस्त सिस्टम का हिस्सा है।

मैं, उस दिन रतन राजपूत को सुन रहा था- यहां अब भी दस रुपया में वोट बिकता है। रतन, मतदान का प्रतिशत बढ़ाने वाले अभियान की एक ब्रांड एंबेसडर हैं। जी हां, यह है मालिक जनता की हैसियत। मैं फतुहा में था। एक गरीब विकलांग, जो मालिक जनता भी है, अपना दुखड़ा सुनाए जा रहा था। मेरा रोआं कांप गया। तभी मोटरसाइकिल पर सवार एक युवक आया। गुटखा चबाते हुए बोला-ऐ सर, कहां इसके फेर में पड़े हैं। वोट के एक रात पहले खस्सी कटेगा, दारू चलेगा, यह लंगड़ा खड़ा हो जाएगा। जी हां, यही है मालिक जनता; उसकी हैसियत। इस बार भी कई पार्टियों ने चुनाव आयोग से गुहार लगायी कि चुनाव में खासकर गरीबों के बीच शराब का वितरण रोकी जाए। यह है मालिक जनता की औकात कि शराब पिलाकर वोट ले लो। पिछले चुनाव में एक संसदीय क्षेत्र में वोटरों के बीच नकली नोट बांटे गए। नोट लेकर वोट देने वाली मालिक जनता के लिए आखिर नेता कर भी क्या सकते हैं? क्यों करेंगे? नेता खुश हैं। इस बार भी कई पार्टियों ने चुनाव आयोग से कहा कि कमजोर लोगों के मतदान की गारंटी की जाए। ऐसे करीब अठारह हजार टोले पहचाने भी गए। यह है मालिक जनता की असलियत। अभी भी ये इस लायक नहीं कि बूथ पर जाकर निर्भय होकर वोट डाल सकें। वाह रे लोकतंत्र, वाह री जनता और वाह री उसकी मालिकाना हैसियत। बड़ी लम्बी कहानी है।

हां, हम इस बात पर मजे की बहस जरूर कर सकते हैं कि लोकतंत्र में मालिक जनता आखिर इस हैसियत में क्यों है? कौन जिम्मेदार है? आजादी के साढ़े छह दशक से हम बहस ही तो कर रहे हैं। अपना देश कहां से कहां तक पहुंचा दिया गया है? यह सब बड़ा खतरनाक है। यह उन कुछ सेवकों का मनोबल गिरा देगा, जो वाकई मालिक जनता को मालिक मानते हैं, उनके लिए कर रहे हैं, करना चाहते हैं। तब क्या होगा?

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