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देखो, समझो, सुधरो

फंटूश
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मेरे एक सहयोगी ने मुझसे पूछा-अगर आप (आम आदमी पार्टी) राजस्थान, छत्तीसगढ़ और मध्यप्रदेश में भी होता तो …? कोई बताएगा? जवाब देगा? यह कितना ईमानदार होगा?

मैं समझता हूं अब यह सवाल खूब जिंदा रहेगा। इसका विस्तार इस प्रकार भी हो सकता है-अगर आप, लोकसभा चुनाव के मैदान में आ जाए तो क्या होगा? इसके ढेर सारे विश्लेषण हो सकते हैं। कई दिनों से हो रहे हैं। कई दिनों तक होते रहेंगे। अपने देश में शब्द और तर्क की कमी नहीं है। बोलने की आजादी है। नेताओं ने तो इस आजादी पर अपनी पेटेंट करा रखी है। नेता अपने हिसाब से बोलते हैं। बस बोलते ही हैं। अब इसमें बदलाव की जरूरत है।

मेरी राय में आप के करिश्मा के कई मायने हैं। यह बस साल भर पुरानी एक पार्टी के अचानक उभरने और खांटी व खुर्राट राजनेताओं को सीधे पटक देने भर का मामला नहीं है। आप के पाले में आया परिणाम वस्तुत: विकल्प की राजनीति का प्रकटीकरण है, जो हर स्तर पर पब्लिक के एंगल से बदलाव की तड़प है। यह उन सभी पार्टियों के लिए नसीहत है, जो देश में आदर्श व्यवस्था की जिम्मेदारी संभालने का दावा रखती हैं।

मुझे दिल्ली के रूप में अपने देश में बड़े और आमूल-चूल बदलाव के संकेत दिख रहे हैं, बशर्ते जनता के सामने कोई सार्थक विकल्प हो। यह विकल्प की राजनीति की शुरुआत भी मानी जा सकती है। यह आप, तुम, मैं, हम सब …, यानी किसी रूप में हो सकता है; पार्टी का कोई भी, कुछ भी नाम हो सकता है। आप के रूप में जनता, बाकी पार्टियों से कह रही है कि यह सब देखो, समझो और सुधरो। लोकतंत्र में जनता, मालिक है, तो उसे इसी हैसियत में रखो। वरना सबकुछ सामने है। बेशक, अपने अस्तित्व की खातिर पुरानी पार्टियों को नई के लिए स्पेस नहीं देना होगा।

हां, यह अजीब तर्क उनको राहत दे सकता है। दिल्ली में अपेक्षाकृत अधिक प्रबुद्ध जमात बसती है। आप या इसके जैसों की कामयाबी के लिए यह जमात जरूरी है, जिसकी देश के दूसरे हिस्सों में मात्रा कम है। लेकिन यह भ्रम है। और यही स्वार्थ का वह मिजाज है, जिसने इक्कीसवीं सदी की दौर में भी लोगों को अशिक्षा व जाति-धर्म के बंधनों में फांसे हुए है। अभी दिल्ली में यह टूटा है। इसकी उम्र लम्बी ही होनी है। इसका विस्तार ही होगा। दिल्ली गवाह है कि चुनाव जीतने की परंपरागत हिसाब-किताब वाली पार्टियों को अपना रवैया बदलना होगा। जोड़-तोड़, जाति -धर्म, तिकड़मबाजी, भावनात्मक शोषण …, अब अपनी उम्र की ढलान पर है। लोग, राजनीति के इस अंदाज से ऊब से गए हैं। अगर उनको कारगर विकल्प मिलता है, तो उसे सहर्ष स्वीकार कर सकते हैं।

मैं देख रहा हूं-आप के रूप में लोगों ने नए चेहरों को पसंद किया है। यह राजनीति में नए चेहरों को आमंत्रित करने वाली स्थिति है। अभी तक अधिकांश लोग राजनीति को बदनामी का पर्याय बता, इससे दूर ही रहते थे। अलग बात है कि जुबानी तौर पर अच्छे लोगों को राजनीति में आने की बात लगातार कही जाती रही है। आप, इस पूरी राजनीतिक प्रक्रिया की प्रेरणा है।

थोड़ा पीछे चलिए, सबकुछ साफ-साफ है। आप के कारिंदे वही रहे हैं, जिनके बारे में धारणा बना दी गई थी कि बिंदास या मतवाले युवकों की यह टोली पहले कैंडिल मार्च निकालती है, फिर बीयर बार में बैठ जाती है। आंदोलन, फैशन है; लिपिस्टक लगाकर कहीं विरोध होता है? ये वही हैं, जिनका सामाजिक सरोकार सोशल साइट या फिर फेसबुक-ट्वीटर तक सीमित है। जो भी हो, यह जमात आम लोगों के बीच ईमानदारी और पारदर्शी व्यवस्था का अरमान पहुंचाने में कामयाब रही है। और यह स्वीकार्य हुआ है। यह दूसरी बात है कि यह स्थिति वास्तव में आएगी कैसे? इसका तरीका क्या होगा? यह उन तमाम पार्टियों की जिम्मेदारी है, जो सत्ता की राजनीति करते हैं।

मेरी समझ से सबसे अच्छी बात लोकतंत्र के इस बुनियादी मिजाज के अरसे बाद सामने आने की रही कि जनता, लोकतंत्र में मालिक होती है और उसके साथ हमेशा यही सलूक होना चाहिए। ऐसा नहीं कि नेताजी एक चुनाव के बाद फिर अगले चुनाव में ही इलाके में नजर आ रहे हैं। हमेशा जनता से सीधा सरोकार रखना होगा, उनकी बुनियादी जरूरतें पूरी करनी होंगी। सबसे बड़ी बात इन जरूरतों के पहचान की है। यह बड़े-बड़े मॉल, चमचमाती सड़क व हाईटेक आईटी बिल्डिंग तक सीमित नहीं होनी चाहिए। निश्चित रूप से ये बेहद जरूरी हैं मगर बस इन्हीं के आगे मूलभूत सुविधाओं को किनारा नहीं दिया जा सकता है। आप के नेताओं ने यही किया। चमचमाती दिखने वाली दिल्ली में बिजली, पानी, अपराध, भ्रष्टाचार, रोजमर्रा के मसलों को मुददा बनाया। कामयाब रहे। लोगों को पहचानने में चूक नहीं होनी चाहिए। निर्भया के मसले पर कई दिनों सड़कों पर जमे नौजवानों को नहीं देखा गया था। इस उबाल को पहचानने में चूक हुई।

कुछ और बातें हैं, जो लोकतंत्र की सेहत के अनुकूल हैं। नौजवान, नए चेहरे राजनीति में तेजी से सामने आए हैं। शिक्षा-जागरूकता अपना असर दिखा रही है। इन चुनावों की सबसे शानदार बात यह रही कि मतदान का प्रतिशत बढ़ा। लोग अपने सबसे बड़े हथियार, यानी मताधिकार के प्रति जागरूक हुए हैं।

बहरहाल, आप खुद अपने लिए भी चुनौती है। उसने जो कहा है, करना होगा। विपक्ष में रहकर बड़ी-बड़ी बातें कहना बड़ी आसान बात होती है मगर सरकार में आने के बाद उसे कार्यान्वित करना मुश्किल होता है।

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