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लाशें तो गिरीं। कुछ की गर्दन कटी थी। कई को गोली मारी गई थी। सबने देखी। पुलिस ने गिनी भी। सरकार ने भी लाशों की गिनती कर मुआवजे के नोट गिने। यानी, सिस्टम (व्यवस्था) के हिसाब-किताब से भी लोग मारे गए थे। लेकिन सिस्टम यह नहीं बता पा रहा है कि हत्यारा कौन है? गर्दनें किसने काटी थीं? गोली किसने मारी थी? हद है।
पटना हाईकोर्ट का कहना है कि बेशक, उसे ही यह अंतिम तौर पर तय करना है। लेकिन इसके लिए पर्याप्त सबूत होना चाहिए। पुलिस इसे उपलब्ध नहीं करा पाती है। देखिए। कुछ दिन पहले हाईकोर्ट ने अमौसी (खगडिय़ा) नरसंहार के सभी चौदह आरोपियों को बरी करते वक्त वैज्ञानिक अनुसंधान पर इतराती बिहार पुलिस और उसके कारनामों को पूरी तरह खुले में ला दिया है। कोर्ट कहता है- साक्ष्य में बहुत गड़बड़ी है। इस आधार पर न तो किसी को आजीवन कारावास और न ही किसी को मृत्युदंड की सजा दी जा सकती है। हाईकोर्ट के सतहत्तर पन्नों के फैसले में पुलिसिया गड़बड़ी का विस्तार से जिक्र है। इसमें आरोपियों का नाम बदलने से लेकर, उनकी संख्या बढ़ाने, गवाही में भिन्नता आदि बातें दर्ज हैं, जिससे आरोपियों को संदेह का लाभ मिल गया।
पुलिस ने ऐसा क्यों किया? ऐसा करने वाले पुलिसकर्मियों के खिलाफ कभी कुछ हुआ है, जो होगा? क्यों नहीं होता है? कौन जिम्मेदार है? कौन, किसको रोकता है? यह राजसत्ता या सिस्टम का गुण है? ये सवाल भी पूछे जा सकते हैं कि इन तमाम विसंगतियों या गड़बडिय़ों के मौजूद रहते निचली अदालत ने कैसे अमौसी नरसंहार के दस आरोपियों को फांसी और चार को आजीवन कारावास की सजा सुना दी थी? हाईकोर्ट के मुताबिक निचली अदालत का फैसला गलत था। तो क्या ऐसी गलतियों के खिलाफ कुछ होता है? क्यों नहीं होता है? आखिर जब अमौसी के सभी आरोपी बेकसूर थे, तो फिजूल में उनको जेल क्यों भेज दिया गया? जेल में गुजारा गया उनका समय, उनकी सामाजिक-आर्थिक-मानसिक क्षति- जानलेवा प्रताडऩा …, इन सबका कसूरवार किसको माना जाएगा? बेकसूर को जेल भेजने से बड़ा अपराध कुछ होता है?
ऐसे ढेर सारे सवाल हैं। लेकिन सबसे खतरनाक बात यह है कि सिस्टम के सभी जिम्मेदार तंत्र इन सवालों से अपने को किनारे रखे हुए हैं। कोई, कुछ नहीं बोल रहा है। निचली अदालत इस तर्क पर चुप है कि हाईकोर्ट पर टिप्पणी उसके बूते की नहीं है। पुलिस, न्यायिक मामला बताकर बिल्कुल चुप है। हां, महाधिवक्ता रामबालक महतो ऐसे मौकों पर कही जाने वाली एक बात जरूर कहते हैं-हम हाईकोर्ट के फैसले का अध्ययन करेंगे। जरूरत पडऩे पर सुप्रीम कोर्ट में अपील होगी। और सुप्रीम कोर्ट में …? पता नहीं ऐसे तमाम सवाल कब तक जिंदा रहेंगे? शायद पीढिय़ां गुजर जाएं। एक उदाहरण से जानिए-एक दिसम्बर 1997 की रात लक्ष्मणपुर बाथे में 58 लोग मारे गए। पिछले साल नौ अक्टूबर को पटना हाईकोर्ट ने इस कांड के सभी 26 आरोपियों को बरी कर दिया। राज्य सरकार, इस फैसले के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट गई है। 16 साल बीत चुके हैं। और आज भी यह सवाल जिंदा है कि आखिर हत्यारा कौन था?
अमौसी या लक्ष्मणपुर बाथे की यह दास्तान पहली और आखिरी नहीं है। इधर, नरसंहारों के आरोपी लगातार बरी होते जा रहे हैं। मियांपुर (औरंगाबाद), जहीरबिगहा (गया) नरसंहार …, सबकुछ सामने है। सिस्टम, अपना भरोसा बचाएगा?
जवाब मांगते सवाल …
* क्या इस स्थिति को अपनों को खो चुके लोगों के लिए सिस्टम का यह सुझाव माना जाए कि तुम उनकी शरण में जाओ, जो फटाफट न्याय करता है? यह क्या, नक्सलियों को अपनी जमीन को और मजबूत करने देने की खुली छूट नहीं है?
* क्या यह सच्चाई नहीं है कि ऐसे मसले अराजक तत्वों को हमेशा ताकत देते हैं, उत्प्रेरित करते हैं? हत्याएं इसलिए भी होती हैं कि हत्यारे बचे रह जाते हैं?
* जब कोर्ट मानता है कि पुलिस ने मुनासिब तरीके से अनुसंधान (जांच) नहीं किया है, तो उसके खिलाफ कार्रवाई का आदेश क्यों नहीं होता है? फिर क्या, कोर्ट के आदेश के आलोक में ऐसा करना पुलिस मुख्यालय की जिम्मेदारी नहीं है? ऐसी कार्रवाई का एक भी उदाहरण है?
* लक्ष्मणपुर बाथे नरसंहार के 11 वर्ष बाद 46 लोगों के खिलाफ चार्जशीट हुई। इतना विलम्ब क्यों? (यह बस एक नमूना है।).
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