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मैं मुख्यमंत्री नीतीश कुमार को सुन रहा था। वे संकल्प रैली में सबको विस्तार से समझा रहे थे कि कैसे भाजपा विश्वासघाती है? भीड़ तालियां बजा रही थी। नीतीश की इस बात पर भीड़ खुश थी कि अब लाठी में तेल पिलाने का जमाना नहीं है, कलम में स्याही भरने का समय है। इस बात पर भी खूब ताली बजी कि गुजरात में स्कूली बच्चों को गलत इतिहास बताया जा रहा है; दे-दे राम, दिला दे राम- पीएम (प्रधानमंत्री) की कुर्सी पर बैठा दे राम; लुढ़कती कांग्रेस के पास अपने को रोकने का कोई उपाय नहीं है।
अब मैंने ठीक से जान लिया है कि जनता कब-कब ताली बजाती है? मेरी राय में नेता और पब्लिक, दोनों समान भाव से ताली का निहितार्थ समझते हैं। पब्लिक की ताली से नेता को लाइन व ताकत, दोनों मिलती है और नेता की लाइन, पब्लिक से ताली बजवाती है। ताली, वस्तुत: पब्लिक की दरकार की प्रतीक है। वह बात, वह इच्छा, जिसे वह नेता से चाहती है। खैर, दोनों स्थिति में एक बात कॉमन है-मुद्दा या मसला। जदयू की सभी बारह संकल्प रैलियों का एक बुनियादी विश्लेषण यह भी है कि इसके बूते उसने गठबंधन टूटने की बदनामी भाजपा के सिर थोपने में कोताही नहीं बरती। संकल्प रैली, बहुत मायनों में भाजपा की विश्वासघात रैली वाली सीरीज का जवाब रही। तालियां, विश्वासघात रैली में भी बजी हैं।
मैं देख रहा हूं जदयू अब पूरी तरह से भाजपा पर केंद्रित है। बाकी विरोधी साइड बाई साइड। दोस्ती के दौरान की दुश्मनी वाली बातें भी सामने आने लगीं हैं। ये बताती हैं कि जब नेता, दोस्त से दुश्मन बनता है, तो क्या-क्या होता है? मुख्यमंत्री ने अपनी सभी रैलियों में सबको बताया कि कैसे अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय की किशनगंज शाखा को जमीन देने से रोकने की कोशिश हुई। भाजपा ने ऐसा किया। यह भी कि वे कैसे गणेश जी को दूध पिलाते रहे हैं और अपनी अफवाह की मशीन की जांच के लिए बाजार से नमक गायब करा देते हैं? भीड़ ताली मारती है। भीड़, बिहारीपन की बात पर उत्साहित होती है। मुख्यमंत्री कहते रहे हैं-बिहारियों को अपमानित करने के लिए उनको गुजरात की गरीबी का कारण बताया गया है। … बिहारी बोझ नहीं है। वह दूसरों का बोझ उठाता है। ताली बजती है। पब्लिक को यह बात पसंद है कि सांप्रदायिक सौहाद्र्र के लिए जान की बाजी लगा देनी चाहिए। वह नेता की इस बात पर ताली मारती है। भीड़ चाहती है कि नेता, चाहे सरकार रहे या जाए, सिद्धांत से समझौता न करे। मुख्यमंत्री ने यह कहकर तालियां बटोरी हैं।
मैंने देखा है कि पिछले कई रैलियों से मुख्यमंत्री, कांग्रेस और राजद को अहमियत नहीं दे रहे हैं। आज भी दोनों पार्टियां एकसाथ निपटाईं गईं-केंद्र (कांग्रेस) ने अपने राजनीतिक सहयोगी (राजद) को खुश करने के लिए विशेष राज्य के दर्जा के मसले को ठंडे बस्ते में डाल दिया।
मैंने देखा, माना कि पब्लिक को झूठ पसंद नहीं है। नीतीश कुमार ने अपनी रैलियों में चुनावी सर्वे पर सीधा हमला बोला। सबको बताया कि दिल्ली में अपनी ताकत कितनी जरूरी है? कैसे सबकुछ इसी पर निर्भर है? वे सबसे बोले हैं कि अगर दिल्ली में हमारी ताकत नहीं रहेगी, तो ये लोग (विरोधी) हमारी सरकार नहीं चलने देंगे। चलिए, ये सब जदयू की बातें हैं।
बहरहाल, मैं खराब मौसम में भी जुटी भीड़ से उत्साहित नीतीश कुमार को देख, सुन रहा हूं-यही असली गर्मी है। बिहार की ताकत है। मुझे याद है-हुंकार रैली के बाद नरेंद्र मोदी ने भी बिहारियों की खूब तारीफ की थी। बिहारी तारीफ के काबिल हैं भी लेकिन बिहार …? एक बात और। पब्लिक कब तक सिर्फ ताली बजाएगी? नेता की कोई जिम्मेदारी है भी या नहीं? ढेर सारी बातें हैं। इनकी चर्चा फिर कभी। फिलहाल मौसम और संकल्प को देखें। चुनाव का मौसम है। सबका अपना- अपना संकल्प है।
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