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पंच परमेश्वर

फंटूश
फंटूश
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यह उतनी मामूली बात नहीं है, जितनी समझी जा रही है। पंचायत चुनाव में पंच पद के लिए बहुत कम नामांकन हुआ है। बाकी पदों के लिए खूब मारामारी है।
यह क्या है? क्यों है? कोई समझायेगा, बतायेगा? प्लीज, कोई मेरी मदद करे।
मैं बचपन से पढ़ता-सुनता आ रहा हूं कि पंच, परमेश्वर होता है। समाज का मानिंद व्यक्तित्व होता है। उसकी बात चलती है। हनक होती है। तगड़ी हैसियत होती है। फिर, इतना प्रतिष्ठित पद कोई क्यों नहीं चाहता है? क्या लोग अब पंच लायक खुद को नहीं मानते हैं? उनमें इस भूमिका के निर्वहन की नैतिक ताकत नहीं है? या उन्होंने यह मान लिया है कि अभी का दौर पंच पद के अनुरूप नहीं है? यानी, यह स्वाभाविक संदेह कि पता नहीं उनकी पंचायती को कौन, कितनी तवज्जो देगा?
ढेर सारे सवाल हैं। मेरा दिमाग चकरा गया है। ठीक से काम नहीं कर रहा है। ऐसा क्यों हो रहा है, कुछ तय नहीं कर पा रहा हूं। पिछली बार भी यही हुआ था। मेरी राय में ऐसे सभी सवाल, आदमी और उसके समाज को परख की सलीब पर बखूबी टांगते हैं। आदमी और उसका चरित्र बिल्कुल नंगे अंदाज में खुले में है। आदमी (नेता) तभी कुछ करेगा, जब उसके पास दाम लायक पद हो? बाप रेऽऽ, कितना गिनायें?
जहां तक मैं समझता हूं इस सिचुएशन की सबसे बड़ी वजह मूल्यों की राजनीति है। पंच पद पर माल नहीं है। पंच की तुलना में पंचायत सदस्य का दाम बहुत ज्यादा है। अगर हार्स पावर की टर्म में बात करें, तो इसके दायरे में पंच नहीं आता है। हार्स ट्रेडिंग, महान भारत के उन्हीं महान पदधारकों के लिए इस्तेमाल होती है, जिनका बाकायदा दाम है।
लोकतंत्र की अवधारणा से दुनिया को वाकिफ कराने वाले बिहार के लिए यह हालिया मौका है, जब मूल्यों की राजनीति ग्रास रूट लेवल तक पहुंची है। मूल्यों की राजनीति …! अजी, राजनीति छोडिय़े, पहले मूल्य को जानिये। शुद्ध हिन्दी में शुल्क, दर, कीमत, दाम, रेट या प्राइस को मूल्य कहते हैं। यह मुख्यत: दो प्रकार का होता है-थोक एवं खुदरा मूल्य। एक संदर्भ देखिये। स्थानीय निकाय कोटे से विधान परिषद सदस्यों का चुनाव था। आलू, बैगन, भिंडी …, सब कुछ का दाम सातवें आसमान पर था। मगर मुआ आदमी …! अगर जनप्रतिनिधि (पंच छोड़कर) को प्राइस इंडेक्स में तौलें, तो हिसाब 15 किलो अरहर दाल=एक पंचायत प्रतिनिधि का रहा। (वोट के बाजार का यह आम भाव था। हां, कहीं-कहीं मूल्य 10 हजार रुपये को भी पार किया)।
मैं, हतप्रभ हूं। आदमी, इतना सस्ता कभी न था। मैं, आदमी के नाते शर्मसार रहा हंू। बहुत पहले से कहता रहा हूं कि जमाना नहीं, रेट खराब है। बटखरा की जांच करने वाला अरबपति हो जाता है और डीजीपी रहा शख्स कुछ लाख रुपये से आगे बढ़ता ही नहीं है।
खैर, ग्रास रूट लेवल पर मूल्यों की राजनीति के बारे में मेरा कान्सेप्ट बिल्कुल क्लियर है। और मैं ही क्यों, बच्चा-बच्चा जानता है कि टूटी साइकिल पर घूमने वाला शख्स मुखिया बनते कैसे फोर व्हीलर का सवार बन जाता है; कि प्रमुख जी, बेटी की शादी में लाखों उड़ाते हैं? कहां से आते हैं रुपये? इंदिरा आवास, वृद्धावस्था पेंशन, शिक्षक नियोजन, विकास, गरीबी उन्मूलन व विकासपरक योजनाएं …, भ्रष्टाचार का प्रस्थान बिंदु तो गांव-पंचायत ही है। ऐसे में भला कोई क्यों पंच बनेगा? किसे परमेश्वर कहलाने की फिक्र होगी? यह पद तो फ्रस्ट्रेशन देने वाला है। अभी दौर तो इस समझ या अरमान का है कि महात्मा गांधी और भगत सिंह पैदा हों किंतु पड़ोसी के घर में।
दरअसल, सवाल खून और चरित्र में मिलावट का है। यह देश-समाज-व्यवस्था को मार रहा है। इस मिलावट के खिलाफ जागने की हर कोशिश मौके पर मार दी जा रही है। जनता की हिस्सेदारी या सामाजिक नेतृत्व सुनिश्चित कराने वाली पंचायती राज व्यवस्था लागू हुई, तो राजनीतिक पार्टियां सामाजिक सरोकार वाले नेतृत्व को किनारे करने के मकसद से यहां भी आ धमकीं और कामयाब भी हैं।
अब तो मुझे लोकतंत्र की परिभाषा के बारे में संदेह होने लगा है। विद्वानों ने लोकतंत्र में जनता को मालिक कहा है। वाकई, ऐसा है? अव्वल तो बड़ा सवाल तो यह है कि क्या आदमी, वाकई आदमी है?
राजनीति के तमाम स्तरों व मौकों पर सत्ता ही सत्य है की धूम है। मलाई चाभने वाली सेवकों की भीड़, मालिक की भूख व जलालत की कीमत पर मौज में है। मालिक की रोटी से खेला जाता है। ऐसे मालिकों की तादाद सर्वाधिक है, जिनका लोकतंत्र, वोट व संसद, बस दो वक्त की रोटी है। मुहल्ले में एक चापाकल लग जाये, यही बहुत है। बच्चों को स्कूल में खिचड़ी मिलती रहे, बहुत है।
कोई, क्यों पंच बनेगा जी? त्रि-स्तरीय पंचायती राज या स्थानीय स्वशासन का सपना साकार हो रहा है। बापू की आत्मा जरूर खुश होती होगी। वाह रे आदमी, वाह रे समाज …!

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