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पुलिस का फ्रस्ट्रेशन

फंटूश
फंटूश
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बड़ी मजेदार खबर है। पढि़ए …
गोपालगंज की पुलिस एक कुत्ते को बुरी तरह तलाश रही है। कुत्ता नहीं मिल रहा है। यह कुत्ता एक आदमी (नकछेद मियां) का चार लाख रुपया लेकर भाग गया है। नकछेद, पुलिस के सीने पर सवार हैं। उनको रुपया चाहिए। पुलिस परेशान है। पुलिस को समझ में नहीं आ रहा है कि आखिर किया क्या जाए? ऐसे सिचुएशन में कोई भी कुछ भी नहीं कर पाएगा जी!
मेरी राय में कुत्ता, आदमी नहीं है कि पुलिस को मिल जाएगा। पुलिस को आदमी को पकडऩे में महारथ है। वह एक आदमी के बदले किसी भी दूसरे आदमी को पकड़ सकती है। कुत्ता, कुत्ता है। उसका कोई ठिकाना नहीं है। पुलिस के पास कुत्ते का हुलिया नहीं है। उसका कोई रिकार्ड नहीं है। नकछेद को भी इस कुत्ते का चेहरा याद नहीं है। आजकल उनको सभी कुत्ते रुपया लेकर भागने वाला लगते हैं। उनके घर में नोट का बैग पड़ा हुआ था। वे चापानल पर हाथ धो रहे थे। इसी बीच कुत्ता आया, बैग लेकर भाग गया। नकछेद ने उसका पीछा किया मगर वह फरार हो गया। वह यह सबकुछ पुलिस को बता चुके हैं। पुलिस ने तलाशी अभियान चलाया। एक लाख चालीस हजार रुपये बरामद कर लिए। ये रुपये नकछेद के घर की बगल की गली में मिले हैं। बाकी रुपये का अता- पता नहीं है। तो क्या इस कुत्ते की जगह किसी और कुत्ते को नहीं पकड़ा जा सकता है? उससे पूछताछ कौन करेगा? डाग स्क्वायड इतना एक्सपर्ट है? कुत्तों की सर्किल से इस स्क्वायड ने कुछ टिप्स ले भी लिए, तो कुत्ते पुलिस को अपनी बात कैसे समझाएंगे?
ढेर सारी बातें हैं। बहुत सवाल हैं। अच्छी बात यह है कि अभी तक विपक्षी दल शांत हैं। वे इसको बिगड़ी कानून-व्यवस्था का नमूना नहीं बता रहे हैं। उनका आंदोलन नहीं हो रहा है। अगर कोई आदमी नकछेद के रुपये लेकर भागता तो …!
खैर, मैं भी मानने लगा हूं कि वाकई पुलिस को बहुत सारे काम करने पड़ते हैं। ये इतने ज्यादा हैं कि बेचारी पुलिस फ्रस्ट्रेटेड हो जाती है। इन सबकी एवज में उसको बस गालियां मिलती हैं।
मैं देख रहा हूं पुलिस को अपने रूटीन काम के अलावा तरह-तरह के काम करने पड़ते हैं। उसको कारोबारी से रंगदारी मांगनी पड़ती है। बेकसूर युवक को मरने लायक पीटना पड़ता है। जेल में रहने वाले बूढ़े पर डकैती का मुकदमा करना पड़ता है। इसमें चार्जशीट करनी पड़ती है।
अभी पुलिस ने पटना सिटी में एक नेता टाइप आदमी को पकड़ा। वह एटीएम काट रहा था। वह विधानसभा का चुनाव लड़ चुका है। आजकल चुनाव हो नहीं रहा है। इसलिए फुर्सत में था। पहुंच गया कटर लेकर एटीएम। पुलिस को ऐसे लोगों को देखना पड़ता है।
पुलिस को सिर्फ लाठी-गोली नहीं मारना है, बल्कि रसूख वाले कैदी को शराब भी देना है। गार्ड को अपनी बाडी के तमाम पाप में भागीदार बनना है। इस महान काम के दौरान उनको अपने साथी पर भी गोली चलाना है। बाडी के साथ गार्ड को फरार होना है।
मेरे लिए यह अरसे से शोध का विषय है कि पुलिस, रसूख वालों के लिए बेहद उदार कैसे हो जाती है? यह उसकी उदारता है, हीनता है या अपराध है? फिलहाल मैं तीनों एंगल देख रहा हूं। बेशक, जब पुलिस की मार से भागते फिरने वाले शख्स को बचाना, पुलिस का प्राथमिक कर्तव्य बनाया गया है, तो यह सब होना ही है। हां, तो उसको अपनी यह हीनता पब्लिक पर उतारनी है। उसको जब-तब गोली चलानी पड़ती है।
मुझको याद है कि दूधनाथ राम जब चार साथियों (पुलिसकर्मियों) के साथ फांसी की सजा पाया, तब यही माना गया था कि अब शायद ही कोई पुलिसकर्मी अपराध की हिम्मत करेगा। बाराचट्टïी के थानेदार दूधनाथ ने कपड़ा कारोबारी राजेश धवन व उनके स्टाफ को लुटेरा बताकर मार दिया और उनके रुपये लूट लिए थे। लेकिन बाराचट्टïी के बाद करीब छह वर्दीधारी गुंडे सामने आए हैं। इनमें कई तो ऐसे हैं, जिनके कारनामे खूंखार अपराधियों को सिहरा देते हैं। हत्या, अपहरण, लूट, बलात्कार, छिनतई, बूथ कब्जा, रंगदारी वसूली, मानवाधिकार हनन, ज्यादती, बेवजह फायरिंग, रिश्वतखोरी, नशाखोरी …, वास्तव में उनके काम की कमी नहीं है। उनको हेलमेट भी चेक करना है और घर को टूटने से बचाने वाली काउंसिलिंग भी। आजकल शादियां भी करानी पड़ रही है। पानी-बिजली के लिए सड़क जाम से निपटना है, तो परीक्षा ठीक से संपन्न करानी है। अपराधियों-नक्सलियों से लडऩा है। ऐसा माहौल बनाना है, जो शांति का पर्याय हो। उनके खाने-सोने का ठीक नहीं है। साधन नहीं है। शहादत की नई परिभाषा को बस सलाम करते रहना है। अपने उत्पाती बाल-बच्चों को संभालना है। फ्रस्ट्रेशन होना ही है।
अब तो लोग भी हिंसक हुए हैं। सीधे पुलिस पर हमला बोलते हैं। अपराधी को छुड़ा लेते हैं। भीड़ का कानून, नई सामाजिक टर्मलाजी के रूप में स्थापित हो रहा है। फिर, किया क्या जाए? कोई बताएगा?

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