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बड़े, बच्चों को बहुत कुछ सिखा रहे हैं। बच्चे यह भी सीख रहे हैं कि बड़ों से क्या- क्या सीखा जा सकता है?
बच्चे विधानसभा में थे। बच्चे, बड़ों से सीखने लगे हैं कि कैसे पहले बहस के लिए हंगामा होता है और फिर बहस में हंगामा होता है? बच्चे, बड़ों से सीख रहे हैं कि कैसे बस हंगामा के लिए हंगामा होता है; बस विरोध के लिए विरोध होता है? बच्चों ने बड़ों को देखा है, बड़ों को जाना है और उनसे सीख रहे हैं कि अपने महान देश के महानतम संविधान में हंगामा की भी बाकायदा प्रक्रिया है। इसके लिए प्रस्ताव आता है। गजब …, बच्चे, बड़ों की जानकारी से चौंक रहे हैं। बड़े, बच्चों को संसदीय प्रणाली वाले देश का असल मजा दे रहे हैं। बड़े, बच्चों को सबकुछ सीखा रहे हैं।
बड़े, बच्चों को सिखा रहे हैं कि दीवार पर लिखी सुनहरी बातें सिर्फ पढऩे के लिए होती हैं। अगर कुछ करना है, तो ठीक इसका उल्टा करो। बच्चों ने विधानसभा के भव्य अंडाकार कक्ष में बड़ों की इस सीख को खूब जिया है, सीख रहे हैं। बड़ों ने इस कक्ष की दीवारों पर ढेर सारी प्रेरक बातें लिखी हुईं हैं। बड़ों ने इसका उल्टा किया है। बच्चे इसे सीख रहे हैं।
उस दिन बच्चे विधानसभा अध्यक्ष उदय नारायण चौधरी को सुन रहे थे। अध्यक्ष जी बोल रहे हैं, सिर्फ बच्चे सुन रहे हैं-माननीय सदस्यगण, आप सब गंभीर से गंभीर बात सीट से कह सकते हैं। हम आपकी बात सुनना चाहते हैं। इलेक्ट्रानिक चैनल से प्रसारण हो रहा है। जनता देख रही है। बच्चे देख रहे हैं। वे संसदीय प्रणाली के बारे में सीखने आए हैं। सिर्फ वेल में नारेबाजी से क्या होगा? बच्चों ने सीखा है कैसे, किसी आग्रह को सिरे से खारिज किया जाता है।
बच्चों ने बहुमत की ताकत देखी है, अब उसको सीख रहे हैं। बच्चे सीख रहे हैं कि किन मौकों पर थकाकर मारने वाली तकनीक इस्तेमाल की जानी चाहिए और कैसे इसके भी कारगर न होने पर सीधे बैकफुट पर आ जाना चाहिए। बच्चे यह भी सीख रहे हैं कि इस दौरान जनता या उसके सरोकार या सवाल का कोई मतलब नहीं होता है। बस अपना देखना है, अपनी इज्जत देखनी है।
बड़े, बच्चों को सीखा रहे हैं कैसे बात से बात को जोड़कर नई बात निकाल ली जाती है? कैसे मूल मुद्दे को गौण करने की चालाकी असरदार होती है? कैसे खुद को बचाने का सबसे सहूलियत वाला तरीका दूसरे को आरोपित कर देना है? कैसे सरासर झूठ बोला जाता है लेकिन यह असत्य के रूप में कार्यवाही में दर्ज होता है? बच्चे सबकुछ सीख रहे हैं।
बच्चे सीख रहे हैं-भारत माता की जय, वंदे मातरम्, हो-हो, हुआ-हुआ …, ये शब्द या आवाज कहां-कहां अधिक कारगर होते हैं? कैसे नारे टकराते हैं और कैसे सबकुछ एक्सपोज होते हुए भी छुपा सा रह जाता है? बच्चे यह चालाकी सीख रहे हैं।
बच्चे, बड़ों से सीखने लगे हैं कि विधानसभा सर्वोच्च जनप्रतिनिधि सदन है, यह जनता के अरमानों का वाहक व पूर्ति का उपाय तलाशने की जगह है मगर ऐसा शायद ही है। बच्चे सीख रहे हैं कि कैसे घोषित महान संवैधानिक उद्देश्य बड़ी सहूलियत से किनारे कर दिए जाते हैं।
बच्चे एक बात नहीं समझ पा रहे हैं। यह कि बिजली की तरह आदमी (बेहतर शब्द नेता) कैसे आन-आफ होता है? बच्चों ने बड़ों का यह गुण सीखना शुरू किया है। बड़े कुछ सेकेंड पहले जिस शख्स पर गुस्से में भड़के रहते हैं, तुरंत उससे मुस्कुराते हुए बतियाते दिखते हैं। बच्चे सीख रहे हैं कि कैसे बहाने तलाश कर लड़ाई होती है। बड़ों ने बच्चों को जो सबसे बड़ा टिप्स दिया है, वह है-लड़ाई को कभी असली या व्यक्तिगत लड़ाई मत समझो। हां, यह जरूर दिखाओ कि लड़ाई हो रही है। बच्चे, सिद्धांत-नीति और लड़ाई के प्रकार के बारे में सीख रहे हैं।
बच्चे सीख रहे हैं कि कैसे विषय को भरमा दिया जाता है? बात कहीं से शुरू होती, और कहां तक ले जाई जा सकती है? बच्चे सीख रहे हैं कि बस अपनी बात बोलो। सामने वाले की मत सुनो। जोर-जोर से बोलो। जरूरत पड़े तो एक बात को सौ बार बोलो।
मैंने देखा है-ढेर सारे बच्चे, बचपन में ही बड़े हो गए हैं। किसी भी पार्टी जुलूस- प्रदर्शन-सड़क जाम हो, बच्चे आ जाते हैं- गाडिय़ों का शीशा फोडऩे; रिक्शे की हवा निकालने। बड़े, बच्चों से पुतला पर पेशाब करवाते हैं। नक्सलियों ने बच्चों की फौज बनाई है। जाली नोटों के कारोबारी बच्चों को कैरियर बनाए हुए हैं। बच्चों का बहुत सारा इस्तेमाल हो रहा है।
बहरहाल, मेरी राय में वह दिन दूर नहीं है, जब ये बच्चे, बड़ों के भी बाप हो जाएंगे। पता नहीं, वह कैसा दिन होगा। मैं तो अभी से डरा हुआ हूं। आपकी क्या राय है? इन हालात में मुझे इस सवाल का जवाब भी तलाशने में मदद करेंगे-नेता, वाकई समाज का पथ प्रदर्शक होता है?
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