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बुद्ध हंस रहे हैं

फंटूश
फंटूश
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मैं सीरियल ब्लास्ट के बाद मुख्यमंत्री नीतीश कुमार को सुन रहा था-मर्यादाएं तार-तार हो रही हैं। पहले ये (भाजपाई) तारीफ करते नहीं थकते थे। अब सत्ता से हटते ही बेसब्र हो गए हैं। … गोयबल्स के उत्तराधिकारी बन गए हैं। प्रदेश जदयू अध्यक्ष वशिष्ठ नारायण सिंह को सुनिए-ऐसा लगता है, भाजपा को खूब मजा आ रहा है। ब्लास्ट से भाजपाई प्रसन्न हैं। आखिर मुख्यमंत्री के खिलाफ नारा लगाने का क्या मतलब है? जब तक ये सत्ता में थे, राज्य का खुफिया तंत्र ठीक था। बीस-बाइस दिन में ही फेल हो गया? जब कोई विवेक से बात कहने की स्थिति में नहीं रहता है, तो बस विरोध के लिए विरोध करता है।

मेरी राय में यह सब उतनी ही सही बात है, जितनी महाबोधिसत्व मंदिर को बचाने में हुई चूक। हमले की आशंका थी। हमला हो भी गया। चलिए, इसके बाद जांच और कार्रवाई की बारी आती है। ऐसा कुछ करने का जिम्मा बनता है, ताकि यह फिर दोहराया न जा सके। इसके लिए माहौल की दरकार होती है। लेकिन इस मोर्चे पर …! बुद्ध सबकुछ देख रहे हैं। बुद्ध हंस रहे हैं।

मुझे कुछ पुरानी बातें याद आ रहीं हैं। राबड़ी देवी मुख्यमंत्री थीं। उन्होंने जब गया में होने वाले राष्टï्रीय स्वयंसेवक संघ के क्षेत्रीय शिविर को रोक दिया, स्वयंसेवक लौटा दिए गए, कुछ पकड़े गए, तब भाजपा के प्रदेश अध्यक्ष नंदकिशोर यादव ने राजद सरकार पर सीधा हमला बोला था-सरकार, आतंकवादी व देशद्रोही संगठनों पर कार्रवाई तो करती नहीं। आइएसआइ (पाकिस्तानी खुफिया एजेंसी) पूरे राज्य में पसर गई है। वोट बैंक की राजनीति के चक्कर में सरकार ने उसे अघोषित पनाह दे रखी है। मेरी जानकारी में ऐसे ढेर सारे नमूने हैं, जिन्होंने जाने-अनजाने दोनों तरफ के अतिवाद को खूब संरक्षित किया है। इसके नतीजे के रूप में आज बोधगया सामने है। बुद्ध हंस रहे हैं।

मैं समझता हूं बोधगया, कुछ वर्ष भर की बात नहीं है। बड़ी लम्बी पृष्ठभूमि है। इसका हर स्तर सिस्टम, खासकर राजनीतिक व्यवस्था को कठघरे में खड़ा करता है। यह गलत है कि आतंकियों के लिए नियोजित तरीके से उर्वरा भूमि परोसी गई? जलालत का चरम झेलती एक बड़ी आबादी की सामाजिक-आर्थिक बदहाली से सरोकार जता उन्हें न तो उन्हें आतंकी संगठनों की तरफ मुखातिब होने से रोका गया, न ही हथियार या खुफिया सूचनाओं के बूते उनके खूनी कारनामों को खत्म करने की ईमानदार कोशिश हुई। नक्सलियों के मामले में भी यही हुआ है। हमेशा इस मसले पर मजे की राजनीति हुई। कभी इस मोर्चे पर राजद-भाजपा थी, आजकल जदयू के सामने राजद और भाजपा दोनों है। न तो इसकी वजह छुपी है, न ही जानलेवा परिणाम। आरोप-प्रत्यारोप की राजनीति में अक्सर ऐसे तत्व बच जाते हैं, ताकत पाते हैं, कारनामे करते रहते हैं। बुद्ध देख हैं। बुद्ध हंस रहे हैं।

मैंने देखा है-सरकार चाहे जहां की हो, जिसकी भी हो, उसके चेतने के कई-कई मौके आए। तीन मई 1994 को जब पहली बार भागलपुर में आइएसआइ के लोग पकड़े गए, तब क्या ऐसा कुछ हुआ, जो आज बोधगया की नौबत नहीं आने देता? यहां सिमी पर प्रतिबंध का अपना अंदाज रहा है। बांग्लादेशी घुसपैठ, राजनीतिक तुष्टि का जरिया बना दी जाती है। पोटा-पोटो पर खूब लड़ाई हुई। नेपाल, बांग्लादेश से जुड़ी सीमा के अपने खतरे हैं। आखिर इंटरनल सिक्यूरिटी और हाई एलर्ट जैसे शब्द क्यूं मजाक लगते हैं?

मैं मानता हूं कि बिहारी, खौफ से ज्यादा शर्म में हैं। दोष माहौल का है। रहनुमा कठघरे में हैं। जय श्रीराम, हर-हर महादेव से लेकर ऐसे भाषण भी दिलों को धधकाते रहे हैं कि अगर मस्जिद में आग लगी, तो मंदिर भी नहीं बचेंगे। ऐसे नारे लगवाने, भाषण देने वाले ही ठोस कार्रवाई की डिमांड करते हैं। यह क्या है? कौन जिम्मेदार है? कोई बताएगा? बुद्ध हंस रहे हैं।

आखिर इस सच्चाई को कौन नकारेगा कि एक समय खुफिया रिपोर्टें भगवा छाप वाला मान खारिज होती रहीं। घुसपैठ का गंभीर मसला सतही राजनीति में उलझा दिया गया। मदरसों को आतंकियों का कारखाना कहा गया। आतंकियों के फैलाव के सभी आयाम-जाली नोट, ड्रग्स, हथियार …, समेकित कार्रवाई से किसने, किसके हाथ रोके हैं? क्यों जब-तब आती हैं ऐसी बातें कि सीमा पर एसएसबी से काम नहीं चल रहा है; बार्डर एरिया डेवलपमेंट प्रोग्राम का बहुत मतलब नहीं है? पुलिस का कहना ही क्या है? फरहान मल्लिक का जाली पासपोर्ट प्रकरण गवाह है कि कुछ रुपयों की लालच में वह क्या नहीं कर सकती है?

बहरहाल, मुझे बुद्ध के हंसने का एक पुराना प्रसंग याद आ रहा है। परमाणु विस्फोट में कामयाबी का कोड वर्ड था-बुद्धा लाफिंग। आज बुद्ध आदमी की सूरत धरे नेताओं पर मुस्कुराए। बुद्ध सिस्टम पर हंस रहे हैं। बुद्ध अपने निर्माण पर हंस रहे हैं। बुद्ध ने आदमी को क्या बनाया था और आदमी क्या बन गया है? बुद्ध हंसते ही जा रहे हैं। हंसते रहेंगे।

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