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अभी पुलिस ने कई जगहों पर नाटक किया है; कराया है। उसके इस नाटक की थीम है कि पुलिस और पब्लिक मिलकर ही अपराध को खत्म कर सकते हैं। पुलिस, पब्लिक की दोस्त है। पब्लिक को पुलिस से डरने की जरूरत नहीं है। पुलिस, पब्लिक के लिए है और पब्लिक, पुलिस के लिए है। नाटक में डायलाग हैं। पात्र हैं। कुछ ऐसे सीन हैं, जो किसी भी पब्लिक को भर्रा दे। उसका गला रुंधा दे। पश्चाताप का भाव-मैंने पुलिस के बारे में बड़ा गलत इंप्रेशन बनाया हुआ था। अहा, वास्तव में तो यह बड़ी सुंदर है? इसके कैरेक्टर पर तो कोई भी फिदा हो जाएगा जी! पब्लिक यह अफसोस भी कर सकती है कि आज तक मैं पुलिस के इस रूप पर फिदा क्यों नहीं हुआ?
मैं भी इन्हीं मनोभाव को जीने लगा था। उस दिन अंजनी कुमार कश्यप को देखा, उसको सुना तो लगा कि वाकई नाटक, नाटक ही होता है। अंजनी असलियत है। आप भी देखिए।
वह कह रहा है-अब बर्दाश्त नहीं होता है। नक्सली मार न दें, इसलिए किसी दिन खुद मर जाऊंगा। अंजनी तो मर ही गया था। उसको मार दिया गया था। किसी तरह बच गया।
अंजनी, घरिया (वजीरगंज, गया) का रहने वाला है। २०११ से पहले तक पुलिस की मुखबिरी करता था। उसकी जानकारी पर पुलिस को बड़ी कामयाबी मिली। कई नामी नक्सली पकड़े गए। गोला-बारूद, हथियार बरामद हुआ। पुलिस वालों ने उसका भरपूर इस्तेमाल किया। कुछ-कुछ रुपये देते थे, बड़ी-बड़ी जानकारी लेते थे। बिल्कुल निश्चिंत रहने का भरोसा दिए रहे। अंजनी उनको सूचनाएं देता रहा। नक्सली जान गए। उसे उठा लिया। गांव से दूर ले जाकर तीन गोली मारी। यह मानकर कि मर गया, नक्सली चले गए। अंजनी बच गया। अब वह अपने आप में सबसे बड़ा खुलासा है। जिंदा गवाह है। वह सबको बेनकाब करने में कामयाब है। और पुलिस …? गांवों में पुलिस-पब्लिक का नाटक खेल रही है।
अंजनी पिछले तीन साल से जहां-तहां भटक रहा है। अब पुलिस अफसर उसकी तरफ देखते भी नहीं। वह ऐसा कुछ मांग भी नहीं रहा है, जो उसे नहीं दिया जा सके। उसे लाइसेंसी बंदूक चाहिए। सुरक्षा चाहिए। वह जनता के दरबार में मुख्यमंत्री कार्यक्रम में इसलिए आया था यहां तमाम बड़े पुलिस अफसर इक_े मिल जाते हैं। अफसर उसको सिर्फ आश्वासन देते हैं।
पब्लिक, पुलिस पर भरोसा करेगी? क्यों और कैसे करेगी? पुलिस का नाटक कामयाब होगा? कौन जिम्मेदार है?
यह तो एक मुखबिर की बात है। पुलिस को तो अपने एक एसपी (केसी सुरेंद्र बाबू) के हत्यारों को सजा दिलाने की फिक्र नहीं है। सुरेंद्र बाबू को नक्सलियों ने पांच जनवरी २००५ को बारूदी सुरंग विस्फोट में उड़ा दिया था। उनके साथ पांच और जवान-अफसर शहीद हुए थे। इस मामले में आरोप इसलिए गठित नहीं हो पा रहा है कि तीन आरोपियों को मुंगेर कोर्ट में हाजिर नहीं करवाया जा रहा है।
अभी एक खबर पढ़ रहा था। लखींद्र चौधरी पुलिस में हैं। सात साल से कोमा में हैं। उनके इलाज में उनका पूरा परिवार कंगाल हो गया है। वे आन ड्यूटी घायल हुए थे। मजे की बात यह कि कोमा में पड़े लखींद्र का तबादला भी किया गया। शुक्र है कि अब अफसर सक्रिय हुए हैं। बड़ा सवाल यह है कि अभी तक ये लोग कहां थे? यह अपने साथियों के बारे में पुलिस का कारनामा है। आखिर पुलिस किसकी दोस्त है?
यह भी नाटक नहीं है। असली और खालिस कहानी है। सुनिए। एक गरीब बाप की दस साल की बेटी के साथ दुष्कर्म हुआ। बाप दिल्ली से घर आया। शिकायत लेकर आरोपी के घर गया। आरोपी ने परिजनों के साथ मिलकर उसको खूब पीटा। अधमरा कर दिया। किसी तरह नवहट्टा (सहरसा) थाना में केस दर्ज हुआ। लेकिन आरोपी ने पुलिस से मिलकर बेटी के बाप को ही जेल भिजवा दिया। अब बाप पर केस उठाने का दबाव बनाया जा रहा है। मैं मानता हूं एक दिन यह काम भी हो जाएगा।
मेरी राय में ऐसे नमूनों की कमी नहीं है। मैं तय नहीं कर पा रहा हूं कि ऐसे में पुलिस, पब्लिक की दोस्त कैसे बनेगी?
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