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भटकल ज्ञान : बेटी-दामाद-बहनोई …

फंटूश
फंटूश
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बस यही कमी थी। रामकिशोर सिंह ने इसे भी पूरी कर दी है। उन्होंने कुख्यात आतंकी यासीन भटकल को सुशील कुमार मोदी का बहनोई बताया है। आतंक के बेहद खतरनाक व संवेदनशील मोर्चे पर जदयू ने बेटी, तो भाजपा ने दामाद का रिश्ता फरिया लिया था। बहनोई बचा हुआ था। पूरा हुआ।

रामकिशोर बाबू जदयू के नेता हैं। पहले भाजपा में थे। प्रोफेसर हैं। इतिहास पढ़ाते हैं। मुझे वे गणितज्ञ और समाजशास्त्री, दोनों लगते हैं। अहा, कितना उम्दा ज्ञान खुलेआम किया है। मोदी जी को भटकल जी का बहनोई बताने का उनका हिसाब बड़ा सरल है। उन्होंने इस क्रम में मोदी सूत्र का सहारा लिया है। पहले मोदी जी का सूत्र जान लीजिए-जब इशरत जहां बिहार की बेटी हो सकती है, तो भटकल भी बिहार का दामाद हो सकता है। उन्होंने आशंका के रूप में यह बात कही है। उनका संदेह जदयू नेताओं को लेकर था। मोदी मान रहे थे कि जदयू नेता ऐसा कर सकते हैं। उनके अनुसार कुछ दिन पहले जदयू के पाले से इशरत को बिहार की बेटी कहा गया था। भटकल के ससुर का परिवार मूल रूप से बिहार का रहने वाला है। ऐसे में भटकल को बिहार का दामाद माना जा सकता है।

मेरी राय में रामकिशोर बाबू, मोदी जी से आगे निकल गए हैं। वे उनकी तरह आशंका की लफड़ेबाजी में नहीं पड़े हैं। पूरी गारंटी के साथ भटकल को मोदी का बहनोई बोल दिया है।

मैं यह सोचकर परेशान हूं कि आखिर रामकिशोर बाबू के छात्र कितने ज्ञानवान होंगे? मैं उनसे मिलने, उनके द्वारा जगह-जगह फैलाए जा रहे ज्ञान को देखने के लिए बेताब हूं। मैंने पहली बार रामकिशोर बाबू का यह विद्वत स्वरूप देखा है। गुरु हैं, गुरु। इससे पहले मैं मोदी जी को गुरु मानता था। उनके ज्ञान का कायल था। उनका ज्ञान भंडार अतुलित है। मोदी जी का ज्ञान चक्षु विपक्ष में रहने के दौरान ज्यादा खुला रहता है। उनके पास तब सवालों की कमी रहती है, जब सरकार में रहते हैं। आजकल सरकार से अलग हैं। ताबड़तोड़ सवाल पूछ रहे हैं। एक से बढ़कर एक सवाल है।

हां, तो बात रिश्तेदारी पर चल रही थी। बेटी, दामाद, बहनोई के बाद भी ढेर सारे रिश्ते बचे हुए हैं। इसकी पूरी गुंजाइश है। साली-साला, सरहज, मामी-मामा, चाचा-चाची, फुआ- फुफा, मौसा-मौसी, साढू …, जरूरत पडऩे पर दादा-दादी, नाना-नानी तक भी पहुंचा जा सकता है। भटकल को केंद्र में रख रिश्तों का चक्र पूरा किया जा सकता है। बहनोई वाले रिश्ते के बाद भाजपा की बारी है। वह क्या बोलेगी? जदयू नेताओं को भटकल का क्या बताएगी? जवाब में जदयू कौन सा रिश्ता समझाएगा? विचार व अभिव्यक्ति की परम स्वतंत्रता वाले महान भारत के जिम्मेदार नागरिक के रूप में मैं, यह सब सोच-सोच कर परेशान हूं।

हद हो गई। राजनीति इतनी गंदी कभी न थी। इसका अगला चरण? मुझे तो लगता है कि अगर गालियां अखबारों में छपने लगतीं, चैनल इनको पीं- पीं या टें-टें जैसी आवाज से गुम न करते, तो भाई लोग खुलेआम गाली-गलौज करते रहते। मैं गलत हूं?

दरअसल, सबकुछ बड़ा मजेदार बना दिया गया है। हर बड़ा मसला, मसाला मान लिया गया है। मैं एक चैनल को देख रहा था। स्टूडियो में बैठा एंकर डीजीपी अभयानंद से जबरिया पूछ रहा था कि आखिर आप भटकल की गिरफ्तारी का श्रेय क्यों नहीं ले रहे हो? इसका क्या राज है? क्या आप पर कोई राजनीतिक दबाव है? एंकर शायद यही कहना चाहता था कि अभयानंद, सत्ताधारी जमात के दबाव पर भटकल को बिहार पुलिस द्वारा गिरफ्तार किए जाने की बात से इसलिए इनकार कर रहे हैं कि इससे अल्पसंख्यक वोटर जदयू से नाराज हो जाएंगे। उसको वोट नहीं देंगे। भाजपाई खेमा यही बात खुलकर बोल रहा है। वह डीजीपी को कानूनी सलाह दे रहा है कि भटकल को कैसे और क्यों रिमांड पर लिया जा सकता था? हालांकि ये सवाल व संदेह इसलिए भी सिरे से खारिज नहीं किए जा सकते हैं कि इसी प्रदेश में इन्हीं भाई लोगों (राजनेता) ने इसकी पुरजोर गुंजाइश बनाई हुई है।

जरा, इस चैनल को देखिए। वह भाजपा के राष्टï्रीय उपाध्यक्ष डा.सीपी ठाकुर के पीछे इस बात को लेकर पड़ गया कि आपने भटकल को भटकल जी कैसे कह दिया? यह तो आतंकी को सम्मान देना हुआ। बेचारे डाक्क साब परेशान। उनका मुख्यमंत्री नीतीश कुमार के खिलाफ दिया गया बयान अच्छा-भला चल रहा था। इस पर भटकल जी भारी पड़ गए। डाक्क साब अचानक सफाई की मुद्रा में आ गए।

मेरे एक सहयोगी पूछ रहे थे-आखिर घिना देने का यह खेल क्यों चल रहा है? मैं समझता हूं कि नेताओं के पास दूसरा उपाय नहीं है। यह सब खुद को बचाने की हीनता है। नेता यह सब करके वस्तुत: अपना चेहरा बचा रहे हैं। चूंकि आतंक के गंभीर मोर्चे पर कमोबेश सभी बेनकाब हैं। यह सच्चाई छुपी नहीं है कि भाई लोगों ने दोनों तरफ के अतिवाद को खूब संरक्षित किया है। एक ने शुरूआत की, तो भला दूसरा क्यों चुप रहेगा? उसको भी तो राजनीति करनी है। जो हालात हैं, सिस्टम का हर स्तर, विशेषकर राजनीतिक व्यवस्था कठघरे में है। बिहार में आतंकियों की कामयाबी की बाकायदा नियोजित प्रक्रिया है। जलालत का चरम झेलती एक बड़ी आबादी की सामाजिक-आर्थिक बदहाली से सरोकार जता उन्हें न तो उन्हें आतंकी संगठनों की तरफ मुखातिब होने से रोका गया, न ही हथियार या खुफिया सूचनाओं की बदौलत उनके खूनी कारनामों को खत्म करने की ईमानदार कोशिश हुई है। आरोप-प्रत्यारोप की राजनीति में नेताओं का चाहे जो भी नफा-नुकसान हो, यह तय है कि इससे अराजक तत्व संरक्षित से रह जाते हैं। मुद्दे भरमा दिए जाते हैं। बड़ी लम्बी दास्तान है। चलती रहेगी। मोदी जी और रामकिशोर बाबू तो बस प्रकट नमूना हैं। बिहारी, खौफ से ज्यादा शर्म में रहेंगे।

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