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मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने भ्रष्टाचार के मोर्चे पर सरकार के सामने समाज को खड़ा कर दिया है। उन्होंने भ्रष्टाचार को रोकने में समाज से मदद मांगी है। मिलेगी? इसकी कूवत कितनों में है? समाज में ऐसे लोगों की मात्रा क्या है, जिनको ईमानदारी की यह निपट सतही परिभाषा बिल्कुल कबूल नहीं है कि ईमानदार वही है, जिसको बेईमानी का मौका नहीं मिला है। ऐसी हैसियत वाले कितने हैं, जो बेधड़क बोल सकें कि उनका ये भाई, उनका बाप या उनका चाचा भ्रष्ट है। भ्रष्टाचार, रिश्तों को खत्म करने का कारक कभी बना है?
मेरी राय में जिस समाज में पत्नी अपने पति के घूस के रुपये को संजो कर रखती है; घर को गहने की छोटी दुकान बना देती है; बेटी और दामाद ऐसे रुपयों को शेयर में खपाता है; जहां बेटा, बाप के बेहिसाब रुपये से गुलछर्रे उड़ाता है, जब रोज खुद दो-तीन हजार बेजा कमाने वाला किसी दफ्तर का किरानी सर्टिफिकेट में अपने बेटे का नाम सुधरवाने के लिए दो सौ रुपये घूस देकर भ्रष्टाचार-भ्रष्टाचार चिल्लाता है, वहां सरकार क्या कर लेगी? यह अकेले उसके वश की बात है? बस उसी का जिम्मा है?
मैंने मुख्यमंत्री को कई मौकों पर दार्शनिक भाव में देखा है। वे अक्सर कहते रहते हैं- कफन में जेब नहीं होती है। सबकुछ यहीं रह जाता है। उनका यह भी कहना है कि भ्रष्टाचार को रोकने में सरकार से जितना संभव है, किया गया है; किया जा रहा है। यह तो बीमारी है। अब क्या किया जाए, समाज बताए। बिल्कुल सही बात है। सरकार, समाज का हिस्सा है, उसका विस्तार ही है। लेकिन कई सवाल भी उभरते हैं।
मैं इस मायने में तो इसे मुनासिब बात मानता हूं कि कानून का मतलब होता है मगर इसकी कामयाबी, इसकी पूर्णता समाज (जनता) की ताकत पर निर्भर है। समाज, भ्रष्टाचार से मुक्ति को तैयार है? लाइलाज रोग बने भ्रष्टाचार में या इसको खत्म करने में समाज की जिम्मेदारी नहीं है? वास्तव में यह क्या तरीका हुआ कि कोई संकट खुद पैदा करो और उसकी समाप्ति के लिए दूसरे का मुंह ताको, उसे जवाबदेह ठहराओ। यही तो हो रहा है। इस लाइन पर मुख्यमंत्री का समाज से सहयोग मांगना सही है।
लेकिन मुझे कुछ बातें समझ में नहीं आ रहीं हैं। सबसे बड़ी बात यह है कि क्या सरकार थक गई है? यह भी कि वाकई, घोटालों का प्रदेश माने जाने वाले बिहार को चलाने वाली पहले की सरकारों ने भ्रष्टाचार शमन के क्रम में अपने पाले की जिम्मेदारी ईमानदारी से निभाई है, जो और बेहतरी के लिए समाज से भरपूर अपेक्षा की जाए? मैंने तो देखा है कि यहां वह व्यक्ति गोलमाल का आरोपी बन गया, जिसने सूबे की रहनुमाई के वक्त घूस को गो-मांस मानने की बात कही थी। जेल से जुड़ी लाज किसने धोई है? किसने जांच एजेंसियों को विकलांग या फिर अपना हथियार बनाया; पब्लिक के बीच भरोसे का संकट पैदा किया? आजमाने में खारिज हुए नेताओं के चेहरे छुपे हैं? कहा जाता है कि अय्यर कमीशन (1967) की रिपोर्ट के आधार पर कारगर कार्रवाई हुई होती, तो भ्रष्टाचार की अभी जितनी मात्रा नहीं रहती। किसने ऐसा नहीं होने दिया? बिहार विनिर्दिष्टï आचरण निवारण अधिनियम लागू कराने वाला चारा घोटाला का आरोपी बन गया। मैं पूछता हूं-कौन ज्यादा दोषी है-समाज कि सरकार?
जहां तक मैं जानता हूं कि परिभाषित तौर पर भी भ्रष्टïाचार का पिरामिड होता है। इसके तहत यह ऊपर से नीचे आता है। इसको नेस्तनाबूद करके ही अपेक्षित परिणाम हासिल किए जा सकते हैं। छुटभैयों की गिरफ्तारी संख्या के हिसाब से रिकार्ड तो बना सकती है लेकिन यह भ्रष्टïाचार के खात्मे में सिर्फ औपचारिकता रहेगी। बीते आठ साल में भ्रष्टï व रिश्वतखोर मुलाजिमों की गिरफ्तारी का रिकार्ड बना है। इसका एक पक्ष यह भी है कि चूंकि रिश्वत ली जा रही है, इसलिए रिश्वतखोर पकड़े जा रहे हैं। लम्बी दास्तान है। खैर, समाज और उसके विस्तारित हिस्से सरकार को अपनी जिम्मेदारियां निभानी ही होंगी, वरना आदमी से संचालित कमोबेश दोनों इस बड़ी बदनामी के किरदार बनेंगे, जब चिकित्सा विज्ञान अपने इस शोध को खुलेआम करेगा कि ये वाली गोली दो टाइम लीजिए, घूस लेने का मन नहीं करेगा।
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