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मरते बच्‍चों को देखते हुए —, आदमी, आदमी है?

फंटूश
फंटूश
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बच्चे, फिर मर रहे हैं। मरते रहते हैं। मरते ही रहेंगे। जो जन्म लिया है, मरेगा ही। जो आया है, जाएगा ही, मेरी राय में, आदमी के दिमाग में गहरे उतर चुकी और बड़ी मजबूत जड़ जमा चुकी इसी धारणा के चलते बच्चे मरते जा रहे हैं। मेरी गारंटी है कि बच्चे तब तक मरते रहेंगे, जब तक यह धारणा जिंदा रहेगी।

अभी मुजफ्फरपुर के बच्चे मर रहे हैं। कल कहीं और के मरेंगे। परसों कहीं और के बच्चों की मौत होगी। वैसे भी अपना महान भारत अपनी धरती को मृत्युलोक कहता है। यहां हर स्तर पर मरते रहने का सनातन व तार्किक सिलसिला है। मैं देख रहा हूं-बच्चों की मौत एक रुटीन टाइप मामला भर है। सिजनल है। सबके लिए कुछ न कुछ है। यह अखबार वालों के लिए सुर्खियां या खबरिया एंगल है। नेताओं के लिए दौरा व बयानबाजी का धांसू मौका है। सरकार के लिए एलान व लाश गिनकर नोट गिनने का मौसम है। विपक्ष के लिए शासन को कोसने का एजेंडा है। अफसरों के लिए मीटिंग -मॉनीटरिंग का दिन है। शोधकर्ताओं के लिए शोध का माध्यम है। डॉक्टर विशेषज्ञता या जानकारी झाड़ रहे हैं। परिजनों के जिम्मे बस रोना-कलपना है। यह सबकुछ खूब-खूब हो रहा है। बच्चे भी खूब मर रहे हैं। अपनी लाश से इन सबके लिए भरपूर गुंजाइश पेश किए हुए हैं।

बच्चे पहली बार नहीं मर रहे हैं। बच्चों को मरते देखकर मुझे कुछ पुरानी बातें याद आ रहीं हैं। मुझे लगता है अश्विनी कुमार चौबे को भी याद होंगी। तब वे स्वास्थ्य मंत्री थे। बच्चे मर रहे थे। सबकुछ अभी जैसा ही था। खैर, चौबे जी मुजफ्फरपुर गए। इतनी बातें बोल गए, कि लगा अब बच्चे नहीं मरेंगे। जिन गांवों के बच्चे मरे थे, उन गांवों को गोद लेने तक की बात कही। मुजफ्फरपुर से लेकर प्रदेश के सबसे बड़े अस्पताल-पटना मेडिकल कॉलेज अस्पताल तक में मरते बच्चों के समुचित इलाज की व्यवस्था करने की बात हुई। मैराथन बैठकें चलीं। निर्देश पर निर्देश। इन सबके बावजूद आज फिर बच्चे मरते जा रहे हैं। क्यों? क्या फर्क पड़ा? अब चौबे जी वाली बातें या एलान कोई और दोहरा रहा है। चौबे जी बताना चाहेंगे कि उन्होंने बच्चों को बचाने के लिए जो-जो बातें कही थीं, उनमें कितने पूरे हुए? नहीं, तो क्यों नहीं? कौन जिम्मेदार रहा? किसी को कोई सजा मिली? कभी चौबे जी ने इस बारे में सोचा भी? समीक्षा की?

और बात चौबे जी की नहीं है। वे तो इस बात के प्रतीक भर हैं कि कैसे हमने तमाम गंभीर व बेहद संवेदनशील मसलों के निपटारे को निहायत सतही, सजावटी या दिखावे के अंदाज में अपनाया हुआ है? सबकुछ सिजनल, यानी मौसमी। मौसम आया, तो सब शुरू और इसके खत्म होते सब चुप, शांत। ऐसे मानों कुछ हुआ ही नहीं था। हर मामले में यही स्थिति है। जो व्यवस्था के जिम्मेदार हैं, उनका यही नजरिया है। ऐसे में बच्चे बचेंगे? जुबान से कहीं इलाज होता है?

मुझे यह सब बड़ा अजीब लग रहा है। बच्चे सबके सामने मर रहे हैं। तड़प-तड़पकर मर रहे हैं। कई साल से मर रहे हैं। मरने का समय तय है। मौत का इलाका पहचाना हुआ है। लक्षण, खुलेआम है। जान निकलने के पहले की तड़प, शरीर की ऐंठन सामने है। फिर भी बच्चे मर रहे हैं। मरते ही जा रहे हैं।

मुझे तो आदमी और उसके विकास पर संदेह होने लगा है। इक्कीसवीं सदी में बच्चों का इस तरह मरना मुनासिब है? आदमी, चांद पर पहुंच गया। वहां बसने की तैयारी में है। मंगल अभियान बुलंदी पर है। लेकिन धरती पर आदमी, आदमी और उसके बच्चे को नहीं बचा पा रहा है। इतना भी नहीं बता पा रहा है कि आखिर बच्चे मर क्यों रहे हैं? तीन-चार साल में बीमारी, उसका नाम, उसकी वजह तय नहीं हो पाई है। बच्चे मरते ही जा रहे हैं। हद है। यह तो तरक्की की शर्म है। चिकित्सा विज्ञान कठघरे में है। क्या आदमी इक्कीसवीं सदी में भी इस लायक नहीं बन पाया है कि तीन-चार साल से थोक भाव में बच्चों को मार रही बीमारी के बारे में जान सके, उसे रोक सके? लानत है ऐसी तरक्की पर। चार साल में मुजफ्फरपुर की यह अज्ञात बीमारी पूरी तरह दुनिया के सामने आ चुकी है। दुनिया ने क्या किया? डॉक्टरों ने अपनी तरफ से क्या किया? डॉक्टर समुदाय की इस बारे में खुद की कोई पहल? डॉक्टरों के संगठन ने कभी इस मसले पर कोई बैठक की? कोई अभियान चलाया? वल्र्ड हेल्थ आर्गेनाइजेशन की कोई भूमिका नहीं है? माना कि अपने महान भारत के डॉक्टर इस लायक नहीं हैं, तो दूसरे देशों के डॉक्टरों को क्या हो गया है? उनकी कोई जिम्मेदारी नहीं है?

मैं समझता हूं, बात घूम-फिर कर वहीं आ जाती है। आदमी और उसकी आदमीयत तक। इस सवाल तक कि आदमी, आदमी है? आदमी से आदमीयत दूर हो चुकी है, इसलिए उसका सरोकार खत्म हो चुका है। इस सरोकार में वे तमाम बातें शामिल हैं, जो एक आदमी से अपेक्षा की जाती है। उसका कर्तव्य, इसका ईमानदार निर्वहन, आदमी के प्रति उसका समर्पण, त्याग, ममत्व …, सबकुछ। यह सब है-सिस्टम में, आदमी में? सरोकार नहीं होने की वजह से बच्चे मर रहे हैं। अगर सरोकार होता, तो आदमी के माथे पर बच्चों के मरने का कलंक नहीं लगता।

यह, कमोबेश उसी तरह की बात है, जैसे अभी तक भूख से मरने की चिकित्सीय परिभाषा तय नहीं हो पाई है। भूख से मौत की बात को उनमें से कोई भी कबूल नहीं करता है, जो आदर्श व्यवस्था का जिम्मेदार माना गया है। इस जमात को यह अपने सिर सबसे बड़ा अपराध लगता है। इसे बड़ी सहूलियत से इस तर्क पर खारिज कर दिया जाता है कि चिकित्सा विज्ञान तो ऐसा नहीं कहता है। साफ है भाई लोगों ने अपने बचाव के सभी उपाय किए हुए हैं। लेकिन वो कब तक बचेंगे? कब तक आदमी कहलाएंगे? और यह सवाल एक बार फिर कि आदमी, आदमी है? यह सवाल बार-बार इसलिए जरूरी है, चूंकि इसके मूल में यह सवाल है-कितनों को इस तरह की या ऐसी पीड़ा हुई है कि मुजफ्फरपुर में मर चुके या मरते बच्चे उनके ही हैं?

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